Wednesday, August 21, 2019

अखबार


अखबार
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रोज सवेरे जो बिना नागा बार-बार आपके घर टपक पड़े, समाचारों का ऐसा पुलिंदा।

वैसे बिना नागा आ टपकने वालों में इसे मांगने वाले पड़ोसी भी पाए जाते है, जो आपसे पहले समाचारों से अपडेट हो जाना चाहते है और लौटाते समय ये बताने से भी नहीं चूकते कि आज के अखबार में पढने लायक कुछ भी नहीं है।

अखबार की जरुरत सुबह-सुबह बड़े बुजुर्ग को पढ़ने से लेकर उस छोटे से बच्चे तक को पड़ती है, जिसे उस 'खास' जगह पर स्थान नहीं मिलता जहाँ बड़े जाकर निवृत्त होने के लिए बैठे हैं। हालाँकि कभी-कभी बड़े भी उस स्थान पर अपना अखबार ले जाते हुए पाए गए हैं। वहाँ इसका उपयोग वे उसे केवल पढ़ने के लिए करते हैं, ऐसा समझा जाता है। 

अखबार की जरुरत दिनभर दुकानदार को भी पड़ती है ग्राहक का सामान बाँधने के लिए, बच्चों को भी पड़ती है किताबों पर कवर चढाने के लिए, गृहणियों को भी पड़ती है अलमारी में बिछाने या काँच पोछने के लिए और रद्दीवालों को भी पड़ती है घर-घर जाकर मांगते फिरने के लिए। इस प्रकार एक अखबार पढ़ लेने के बाद बहुउपयोगी हो जाता है जिसे दादाजी से लेकर बहू, पढ़ने वाले बच्चे और अनपढ़ छोटे से बच्चे तक सारे इस्तेमाल कर लेते हैं।

समाचार पत्र, रिसाला या न्यूज पेपर के नाम से जाना जाने वाला यह अखबार अपने छपने से पहले तक खबरों के सूत्र, पत्रकार, स्तंभकार, कम्पोजर, प्रूफ रीडर, संपादक, प्रेस सुपरवाइजर आदि लोगों की चिंता का सबब रहता है. छपने के बाद वितरक और हॉकर की चिंता बन जाता है और मिलने तक पाठक की चिंता बना रहता है। मिल जाने के बाद भी पाठक की चिंता कभी-कभी इसलिए बनी रहती है की सबसे पहले खुद उसे पढ़े। इस तरह एक अखबार समाचारों के साथ-साथ चिंता का वाहक भी होता है जो चिंता को स्टेप-बाय-स्टेप आगे बढ़ाता रहता है और अंततः देश की चिंता करने का पुण्य श्रेय अपने सर ले लेता है। आश्चर्य की बात है कि एक दिन में दुनियाभर में इतनी सारी घटनायें घट जाती हैं फिर भी उनके समाचार एक अखबार में ठीक-ठीक समा जाते है और अपने साथ विज्ञापनों को भी पर्याप्त स्थान दे देते हैं। 

अखबार का एक महत्वपूर्ण घटक उसमें छपने वाले विज्ञापन हैं, जो अपने दाताओं का सन्देश पाठकों तक पहुँचाने का काम बखूबी करते हैं। एक कॉलम के छोटे से क्लासिफाइड विज्ञापन से लेकर फुल पेज भीमकाय विज्ञापनों से अखबार शोभायमान रहते हैं। कल्पना कीजिये किसी दिन अखबार में एक भी विज्ञापन न हो तो अखबार कैसा लगे ? मानो, बिना श्रृंगार किये कोई महिला सादे से लिबास में सामने आकर खडी हो गई हो। प्रॉपर्टी ब्रोकर्स की तरह ये विज्ञापन अपने सामान या सेवाओं के गुणों का बखान करने में ज़रा भी कंजूसी नहीं करते बल्कि नामालुम गुणों का भी बेहिसाब वर्णन कर जाते हैं। 

किसी समय केवल सुबह के समय टपकने वाले अखबार कुछ वर्षों से दोपहर में भी हाजरी बजाने लग गए हैं, जिससे दोपहर में समय व्यतीत करने के लिए परेशान लोगों को बड़ी राहत मिल गई है। ये लोग अखबार को शीर्षक से लगाकर प्रेस लाइन तक पूरा पढ़ लेने के बाद शब्द-पहेली सुलझाने में समय बिता देते हैं और फिर उसी में मुमफलियाँ छीलकर अखबार और समय का पूरा-पूरा सदुपयोग कर लेते हैं। दैनिक व दोपहर के अखबारों के अलावा साप्ताहिक और मासिक अखबार की भी एक किस्म होती है।

दैनिक अखबार रोजाना अपने संग सिटी न्यूज और पोल-खोलू छोटे भाइयों को भी ले आता है, ताकि जो स्थानीय समाचार मुख्य अख़बार में समाहित नहीं हो पाते उन्हें इन भाइयों के जिम्मे सौंप कर स्वयम का महत्व कायम रख सके। समय-समय पर मुख्य अखबार विशेष परिशिष्ट नामक अपने मित्र को भी आपसे मिलवाने ले आता है।

भाषाई अखबारों की तुलना में अंग्रेजी भाषा के अखबार सेहत के साथ खरीदने वाले के स्टेटस दिखाने में भी वजनदार होते हैं। ये अलग बात है कि इतने सारे पन्नों में से कितने पढ़े जाते हैं, और कितने अनपढ़े ही रद्दी की भेंट चढ़ जाते हैं। अंग्रेजी अखबार मुख्यतः घर से ऑफिस जाते समय कार की पिछली सीट पर बैठे-बैठे पढ़ने के काम आते हैं। 

आम दिनों में दुबले-पतले रहने वाले हिंदी अखबार नवरात्री, दिवाली जैसे त्योहार जैसे-जैसे नजदीक आते जाते हैं, सेहतमंद होते जाते है। इनका वजन और रंगीनीयत त्यौहार के आने तक दिनों दिन बढ़ती जाती है। रंगीन चिकने पन्नों पर जेवरों, कपड़ों, टीवी, वाहनों आदि के विज्ञापनों से इन पर अलग ही चमक छा जाती है। इन दिनों सुबह-सुबह आपके दरवाजे पर इनके टकराने की आवाज ज्यादा दमदार होती जाती है। कुछ दिनों की चांदनी अपनी चमक बिखेरने के बाद फिर लुप्त हो जाती है। इनकी सेहत का राज इन्ही विज्ञापनों में छुपा हुआ है। इन दिनों में यह समाचार-पत्र कम, विज्ञापन-पत्र ज्यादा लगने लगते हैं। 

रेडियो, टीवी, इंटरनेट-मोबाइल पर भले आप समाचार देख सुन लो, लेकिन सुबह की चाय के साथ अखबार में छपे हुए अक्षरों से सामना नहीं होता तब तक दिन की शुरुआत, शुरुआत नहीं लगती।

-व्याख्यानन्द (विवेक भावसार)

Tuesday, August 13, 2019

चाय पर चर्चा !


आइये अपने हाथों के कप आपस में टकरा कर बोलें .... चायर्स !
चाय..... सबसे ज्यादा पीया जाने वाला पेय। अंग्रेज इस देश में जाते-जाते बहुत सी चीजे छोड़ गए. बहुत सी व्यवस्थाएं, आदतें, भाषा, वेशभूषा, कुछ काले अंगरेज तथा साथ में और भी बहुत कुछ ! उनमें से एक है चाय ! हमारे आसपास शायद ही कोई ऐसा हो जिसने आज तक चाय न चखी हो।
चाय... जिससे हमारे दिन की शुरुआत होती है ! सिर्फ सुबह उठते ही नहीं बल्कि दिन में कई बार हम चाय के कप गटक जाते हैं ! किसी को हर घंटे-आधे घंटे में चाय लगती है तो कोई गिनती की ही चाय पीने वाले होते है ! किसी को खाने के पहले चाय लगती है तो कोई खाने के बाद चाय लेता है। तो कोई इतने शौकीन होते हैं कि उनको चाय के पहले चाय... और चाय के बाद में भी चाय जरूरी हो जाती है।
अंग्रेज जो सोफिस्टिकेटेड चाय छोड़ कर गए थे उसमें हम लोगो ने बहुत से प्रयोग कर के तरह-तरह की चाय बना डाली। कभी अदरख वाली चाय तो कभी इलायची वाली चाय.... कभी मसाले वाली तो कभी केसर वाली या लेमन ग्रास वाली । कभी गाढ़े दूध की रब्बाडी चाय..... पतली गर्म पानीनुमा चाय। इन सबके अलावा भी चाय के अलग अलग रंग हैं.... अभिजात्य वर्ग की ग्रीन टी हो या बिना दूधवाली काली चाय, नीम्बू वाली चाय, चाय की थैली कप में लटका देनेवाली चाय आदि।
चाय बनाने के तरीके भी अलग अलग, सड़क किनारे गुमटी वाला पहले से बने दूध-पानी के मिश्रण में शकर, चायपत्ती मिला कर उबालने का हो या घर में गैस पर पतीले में पानी चढ़ाकर क्रमश: अदरख, शकर, चायपत्ती और अंत में दूध मिलाकर चाय बनाई जाती हो। स्टार होटलों में एक केतली में उबला हुआ चाय का पानी और साथ में शकर, दूध को अलग-अलग पात्रों में दिया जाता है जिससे पीने वाले अपनी रूचि अनुसार बना कर पीते हैं.... तो ठेलों-होटलों पर गिलास में मिलने वाली चाय जिसका इन सब झंझटों के बिना सीधा आनंद लिया जा सकता है। इन ठेलों-होटलों पर मिलने वाली चाय को भी भिन्न-भिन्न नाम प्राप्त हैं। स्पेशल, टिमटिम, गुलाबी, बादशाही, बंगाली जैसे नाम अलग-अलग शहरों में प्रसिद्ध हैं।
कहीं चाय कांच के गिलास में पेश की जा रही है तो कहीं कुल्हड़ में, कागज के कप में या चीनी मिट्टी के कप में। चाहे जैसे इसे पेश किया जाए, चाय तो चाय है, शौकीनों की पसंद।
चाय पीने के अलग-अलग कारण हो सकते हैं। तरावट के लिए या सुस्ती दूर करने के लिए चाय पीना तो सर्वमान्य कारण है। किसी काम से उकता गए हों तो मूड बदलने के लिए चाय पी जाती है या रात में पढ़ते समय नींद न आने के लिए भी लोग चाय का सेवन करते है, किसी का सर दर्द करता है तो वह उस बहाने चाय पी लेता है, भूख दबाने के लिए पी लेता है या मेहमाननवाजी में मेहमान के साथ पी लेता है। चाय के बिना मेहमाननवाजी पूर्ण नहीं होती। मेहमाननवाजी का सबसे सस्ता तरीका है चाय।
दोस्ती का माध्यम भी है चाय। कोई दोस्त जब मिलने आता है तो कदम बरबस ही चाय के ठेले की ओर चल पड़ते है और चाय के साथ गपशप का आनंद लिया जाता है। चाय के लिए समय का या मौसम का भी कोई बंधन नहीं, गर्मी का मौसम हो तो सुस्ती भगाने के लिए, ठण्ड का हो तो ठण्ड दूर करने के लिए और बारिशों में पकौड़ों के साथ चाय का आनंद तो वर्णनातीत है ! किसी को चाय उबलती गर्म पीने की आदत होती है तो कोई ठंडी गार कर के पीता है। सबकी अपनी-अपनी पसंद।
इस चाय ने पता नहीं कितनों को रोजगार दिया है. शायद सबसे ज्यादा रोजगार देने वाले क्षेत्रों में से एक इसका नाम हो. चाय बागानों से लेकर वितरक, थोक-खेरची विक्रेता और चाय की छोटी सी दुकान-ठेला लगाने वाले तक। चाय की एक छोटी सी दुकान के सहारे अपने परिवार को पालते हुए बच्चों को पढ़ाकर बड़ा अफसर, इंजिनियर बनाए जाने के उदाहरण भी हमें देखने मिल जाते हैं। चाय की इन छोटी दुकानों पर दोस्तों के बीच चर्चाओं में से न जाने कितनी कल्पनाओं का सृजन हुआ होगा, जो बाद में वृहद आकार में साकार हो गई होंगी।
इन सब के बीच रेलवे की चाय ने भी पूरे भारत को एक सूत्र में बाँधने का फर्ज निभाया है क्योंकि कश्मीर से कन्याकुमारी तक कुछ एक हो न हो .... भारतीय रेलवे की चाय एक (जैसी) है !
तो आइये एक बार फिर से अपने हाथों के कप आपस में टकरा कर बोलें .... चायर्स !
- चायसेवनानंद !

Wednesday, August 7, 2019

माझे अध्यक्षीय भाषण !


जेव्हां पासून र ला... फ, किंवा फ ला... ट न करता, ऊठ ला सूठ आणि रफा ला दफा अशी यमकं जुळवून कविता करायला लागलो व माझ्यासारख्या अनेक कविंसोबत मैफली गाजवल्या तेव्हांपासून माझी गणना नामवंत कवि म्हणून व्हायला लागली. मग अशातच अनेक गावातून कवि सम्मेलनातून आमंत्रणं येवू लागली. प्रसिद्धि वाढत गेली. वाढत वाढत इतकी वाढली की आता लोक मला कवि सम्मेलनाच्या अध्यक्षतेसाठी बोलवायला लागले. आता किती म्हटले तरी लोकांच्या आग्रहाला नकार देता येत नाही नां ! करता काय? मग अनेक वेळा अशा सम्मेलनांचे अध्यक्षपद यामुळे मला भूषवावे लागते.

आता अध्यक्षपद आलं की अध्यक्षांच भाषणही आलंच. आता प्रत्येक वेळी काय नि कसे भाषण करायचं म्हणून मी या भाषणाचा एक फार्म्युलाच तयार करुन ठेवला आहे. आता तुम्ही आपलेच, म्हणून मी हा फार्म्युला सांगतो तुम्हाला, न जाणो कधी तुम्हालाही अध्यक्षीय भाषण कराव लागलं तर, काय सांगता येतं, नाही कां ? 

त्याचं असं आहे, ज्या गावी निमंत्रण असेल, तिथली भौगोलिक परिस्थिती, नदी, नाले, टेकड्या, मंदिरे, तेथली प्रसिद्धि पावलेली ऐतिहासिक किंवा इतर क्षेत्रातील व्यक्तिंची माहिती हळुच कार्यक्रमा आधी निमंत्रकांना विचारुन घ्यावी. कारण या माहितीची भाषण देतांना फारच मदत होते. 

तर जेव्हांही असे भाषण देण्याची पाळी येते तेव्हां माइक वर आल्या आल्या सर्वात आधी माइक हलवून, खाली वर करून एडजेस्ट केल्या सारखे दाखवावे, म्हणजे श्रोत्यांवर आपण एक सराईत वक्ता असल्याची छाप पडते. त्यानंतर व्यासपीठावर बसलेले प्रमुख पाहुणे व इतर मान्यवर मंडळींना नमस्कार-चमत्कार, वंदन-अभिनंदन वगैरे नेहमीचे सोपस्कार करुन समोर बसलेल्या श्रोत्यांची स्तुति करुन टाकावी. पहिल्या ओव्हरलाच स्तुतिचा असा बॉल टाकला की श्रोते खुश होतात आणि मग तुमचे भाषण हूट वगैरे होण्याची शक्यता कमी होते. 

पुढे मग गावाची थोडी तारीफ करावी. गावातल्या एखाद्या ऐतिहासिक वास्तूचे, देवळाचे, नदी-तलावाचे, रस्त्याचे, गावात जन्मलेले कोणी महान संत, महापुरुष, साहित्यिक यांचे गुणगान केले की श्रोत्यांना मनातल्या मनात आनंदाच्या उकळ्या आणि हातांनी टाळ्या फुटू लागतात. मग मात्रा तुमच्या भाषणात अडथळा आणायची कोणाची काय बिशाद! 
 
नंतर...मूळ विषयाला हात घालण्यापूर्वी स्वतःबद्दल थोडे बढाईपूर्वक सांगावे. आपले लहानपण, बालपणातला हुडपणा, समंजसपणा, विद्यार्जनासाठी घेतलेली मेहनत, अडचणींना दिलेले तोंड, आपले प्रेरणा देणारे व्यक्ति, यांच्याबद्दल सांगावे. नंतर साहित्य क्षेत्रात कसा प्रवेश केला ते सांगावे. यामुळे श्रोत्यांच्या मनात आपली प्रतिमा मेहनती व अभ्यासू म्हणून दृढ होत जाते व श्रोते आपल्याला आदराने पाहू लागतात.

इतके सगळे बोलून झाल्यानंतर मूळ विषयावर यावे. त्या विषयाची माहिती आपल्याला असली तर उत्तमच, नाही तर काही थातूर मातूर बोलून मोकळे व्हावे. नाहीतरी श्रोते आपल्या पूर्वीच्या भाषणामुळे गपगार झालेलेच असतात. त्यांच्या कामाचे-स्तुतिचे त्यांनी ऐकून झालेले असते. शेवटी, एखादे संदेशपर वाक्य बोलून आपली एखादी रचना ऐकवावी व भाषण संपवावे.

सांगायला आनंद होतो कि हे जे गुपित आत्ता मी तुम्हाला सांगितले आहे, ते उघड होण्यापूर्वीच मोठ-मोठ्या साहित्यिकांनी-इतकेच काय आपल्या पंतप्रधानांनीही आपली अध्यक्षीय भाषणे या फार्मूल्याचा उपयोग करुन आपल्या सभा गाजवल्या आहेत. 

मला माहित आहे, हे सगळे तुम्हाला एखादे उदाहरण दिल्या शिवाय पटणार नाही. म्हणून मी एक माझाच अनुभव तुमच्या पुढे ठेवत आहे. मागच्याच महिन्यात मला मौजे डामरटवाडीला तेथल्या तिसऱ्या अखिल भारतीय वार्षिक कवि संमेलनाचे अध्यक्ष म्हणून आमंत्रण होते. गावाच्या नावाप्रमाणेच तेथले लोकही फारच डामरट आहेत. माझ्या कानावर होते कि आधीची दोन संमेलने या लोकांनी मोठ्या प्रयत्नाने उधळून लावली होती. पण माझ्या अध्यक्षीय भाषणाने मी अशी काही छाप सोडली कि संमेलन उधळून लावण्याऐवजी लोकांनी मलाच डोक्यावर उचलून धरले. नाही म्हणायला सुरवातीला एखाद-दुसरा लहानसा प्रयत्न झालाच उधळण्याचा.... पण मी काही दाद लागू दिली नाही. 

त्याच वेळचे माझे भाषण मी आता तुमच्या पुढे सादर करित आहे.

‘‘व्यासपीठावर विराजमान येथले लोकप्रिय आमदार व आजचे प्रमुख पाहुणे श्री बुचकेपाटिल, ज्यांनी माझी या अध्यक्षपदासाठी जोमाने शिफारस केली असे माझे परम मित्र डामरटवाडीचे संरपंच श्री सोमाजी टोणगे, आजचे विशेष पाहुणे आदरणीय श्री चावरे सर, मंचावर उपस्थित राष्ट्रीय कीर्तिप्राप्त माझे सारे कविमित्र श्री कोमल लवचिके ‘दगड’, कुमारी स्नेहल ‘प्रियकर’, श्री नरसू केकाटे ‘मधुर’, श्री रंगोबा बोचरे ‘काटा’, श्री काळू बेरड, श्री आंबुसराव तांदळे ‘स्वच्छ’ आणि डामरटवाडीतील सर्व रसिक, गुणग्राही, उत्साहवर्धन करणारी श्रोते मंडळी.

मित्रहो ! तुमची कवि संमेलनाबद्दल असलेल्या प्रेमाची, रसिकतेची कीर्ति आधीच माझ्या कानी आली आहे. कवि संमेलन म्हटलं की तुम्हा सर्वांना एक मनस्वी आनंद होतो हे मला ठाऊक आहे. या सम्मेलनाचं अध्यक्षपद मला देऊन आपण माझ्यावर जो लोभ व विश्वास व्यक्त केलात, त्या बद्दल मी आपला अत्यंत आभारी आहे. मराठी साहित्याच्या सेवकाला त्याच्या चाहत्यांच्या तर्फे मिळणारा हा एक मोठाच मान असतो. तो मान आपण मला दिलात, हा माझा नव्हे तर तुमचाच मान आहे असे मी समजतो. या मानासाठी नुसते शाब्दिक आभार मानून मी कसा उतराई होऊ. मी एवढंच सांगीन कि आजपर्यंत केलेली सर्व साहित्य सेवा तुमच्या सर्व रसिकांच्या चरणी अर्पण करतो. या क्षणी मला मच्छीकरांची एक कविता आठवत आहे. त्यांच्याच शब्दात सांगायचे म्हटले तर-
आणले चार मासे,
अर्पण करतो दोन तुला मी
उरले रे दोनच आता
चार सांगितले होते आणाया
घरी नेऊ मी हे कसे
तूच ठेव हे चारही मासे
आणले चार मासे.... 

असो, तर म्हणायचा अर्थ असा की माझी सर्व साहित्य सेवा तुम्हाला अर्पण केल्यावर माझे काय उरले, सर्व तुमचेच.

मित्रहो ! या मौजे डामरटवाडी गावाला फार थोर परंपरा लाभली आहे. गावाला वळसा घालून वाहत असलेल्या कळसा नदीचे पाणी पिऊन पिऊन मोठमोठ्या साहित्यिकांनी प्रेरणा घेतली आहे (उधळण्याचा प्रयत्न, श्रोत्यातून एक जण - अहो ... नदी नाही, नाला आहे तो नाला ) मी म्हणतो चला नाला तर नाला, यात पाणी वाहते आहे हे काय कमी आहे ? तर या अत्यंत पवित्र अशा कळसेच्या काठी असलेले नवसोबा भैरवाचे मंदिर तर आख्या भारतात प्रसिद्ध आहे. त्याच्या दर्शनाला फार लांबून लांबून म्हणजे पंचक्रोशितल्या सर्व गावांतून भाविक येत असतात. आमचे आदरणीय श्री बुचके पाटिल यांच्या प्रयत्नाने मागील पांच वर्षांपासून दरवर्षी भरणारी या भैरवाची 3 दिवसाची जत्रा नाशिकच्या कुंभमेळ्याच्या तोडीची असते. तर अशा थोर, महान व पौराणिक व पूर्वापार चालत आलेली परंपरा लाभलेली जत्रा भरणाऱ्या या भैरवाच्या नगरीत मला येण्याचे भाग्य लाभले हे मी माझे परम भाग्यच समजतो.

थोर अंतरराष्ट्रीय संत नारायणबोवा कीर्तनकार इथलेच, आसपासच्या दहा-बारा गांवांना आपल्या कीर्तनाने गाजवणाऱ्या संतश्रेष्ठ नारायणबोवांना विठ्ठलाचे नाव घेऊन मी श्रद्धापूर्वक नमन करतो.

विश्वकीर्ति लाभलेले आमदार बुचके पाटिल, ते ही येथलेच. वारंवार विधानसभेत अडथळा आणून टीव्ही कॅमेऱ्याच्या माध्यमाने प्रसिद्धिच्या झोतात येऊन देशप्रेमाचे उदाहरण घालून देणारे श्री बुचके पाटिल यांना मी अडथळा न आणू देता नमन करतो.

मागच्या दसऱ्याला तालुक्यातल्या सर्व पैलवानांना धूळ चारुन विश्व प्रसिद्धि पावलेले श्री बंडू दाणगट पैलवान देखिल या डामरटवाडीचेच. आलंपिक मधे भाग घेऊ इच्छित अशा नामांकित बंडू पैलवानांना मी लांबूनच नमन करतो.

वर्गात एकही दिवस न शिकवता पोरांना पास करत करत आठवीपर्यंत आणून पोचवणारे चावरे मास्तरही याच गावचे भूषण. आदर्श शिक्षकाचे राष्ट्रपति पदक मिळविण्यात थोडक्यात हुकलेले हरहुन्नरी अशा चावरे सरांना मी कान धरुन नमन करतो.

डामरटवाडी म्हटली की इथले भट्टी लावणारेे सोन्या गाळकर आठतात, संपूर्ण गावाला गाळून गाळून शुद्ध केलेले पेय पुरवणाऱ्या गाळकरांनी शुद्धतेचा एक आदर्शच गावापुढे घालून दिलेला आहे. खरे म्हटले तर यांना स्वच्छता मिशनचे ब्रांड अॅम्बेसेडर करायला कोणाची काहीच हरकत नसावी.

यानंतर लागलीच आठवण येते ती गान-नृत्यकला प्रवीण मंजूळाबाईं सतावकरीण यांची. आपल्या गायन व नृत्य कलेने अख्या महाराष्ट्रात धमाल उडवून लावणाऱ्या आणि भल्या भल्यांना घरदार सोडून देत सतावण्याइतके वेड लावून फड गाजवणाऱ्या जग प्रसिद्ध मंजूळाबाईंना, आणि त्या फडात आम्हाला पहिल्या धारेची पुरवणाऱ्या सोन्या गाळकरांसोबत फडात आम्हाला कायम साथ देणाऱ्या पोलिस पाटिल श्रीयुत खाशाबा जाधव यांनाही आम्ही गजरा बांधलेल्या हातांनी पेला उंचावून सलाम करतो.

तर सांगण्याचा अर्थ असा कि आज जरी शहरात रहात असलो तरी या गावातच आम्ही लहानाचे मोठे झालेलो आहोत. कळसा नदीचे पाणी आम्हीही चाखले आहे. (गर्दीतून एक जण- सोन्या गाळकरांच्या भट्टीत तेच वापरतात बरं का) .... तर याच गावात आम्ही चावरे सरांच्या मार्गदर्शनाखाली कोमल लवचिके, स्नेहल प्रियकर यांच्या मांडीला मांडी लावून कविता करायला लागलो. मला मिसरुड फुटायच्या आधीच माझी पहिली कविता फुटली ती चावरे सरांमुळेच. झाले काय कि पाचवीत असतांना वर्गात मी पाटीवर ‘माझी प्रिय कविता’ असे लिहून माझ्या मागे बसलेल्या कविता लुटपुटेला पाटी दाखवत होतो तेव्हढ्यात चावरे सरांनी पाहिले व वाचून दाणकन हातातले डस्टर पाटीवर फेकून मारले आणि अशा प्रकारे माझी पहिली कविता आणि पाटी बरोबरच फुटली. पण मी निराश न होता सरांचे उट्टे काढायच्या मिषाने... मिशा नसलेल्या सरांच्याच हजेरीपटाचे पान गुपचुप फाडून त्या कागदावर कविता लिहीली अन मग ती ‘कविताला’ दिली. ती माझी पहिली कविता अशी होती -

माझी प्रिय कविता,
मार सरांचा चुकविता !
झाली ओली विजार,
घातली तशीच न सुकविता !!
.....माझी प्रिय कविता

तर मित्रांनो, अशी माझी सुरवात झाली. बालपणापासूनच प्रतिभा समोर होती. कारण कविता मागे असायची. हळु हळु प्रगति होत गेली. प्रतिभा, कविता आणि प्रगतिमुळे व सरांचे मार्गदर्शन मिळत गेल्याने मी शेवटी एकदाचा कवि झालो. पुढे डामरटवाडीतून प्रसिद्ध होणारे शंभराच्यावर प्रसार संख्या असणारे मंजुळाबाईंचे देशप्रसिद्ध साहित्यिक मासिक ‘मंजुळ चाळे’ यांत त्यांच्या फडाच्या जाहिराती बरोबर माझ्या काही कविता छापून आल्या व साऱ्या जगाला माझी ओळख पटली. यात या सर्वांचे श्रेय आहे, प्रेम आहे.... म्हणूनच मी आज तुमच्यापुढे आज असा धडधाकट उभा आहे.
तसे पाहिले तर माझ्या साहित्यावर बऱ्याच लोकांची छाप आहे, तरी त्यात प्रमुख म्हणून नाव घेता येईल तर आमचे मुंबई-पुण्याचे बरेच प्रकाशक.... सुरवातीला माझ्या कविता मी मुंबई, पुणे येथील प्रसिद्ध प्रकाशकांना पाठविल्या, पण त्यांनी ‘नापंसत-साभार परत’ अशा शिक्क्यांचे छाप मारुन परत पाठविल्या. अशा प्रकारे त्यांनी माझ्या साहित्यावर आपली पहिली छाप पाडली. पण मी डगमगलो नाही. नंतर माझ्या मित्रांच्या सहयोगाने वर्गणी करुन मग मी त्या स्वतःच प्रसिद्ध केल्या. डामरटभूषण या पुरस्काराने मागील वर्षीच तुम्ही लोकांनी माझा या संग्रहाच्या निमित्ताने सम्मान केला आहे. आता स्वतःचीच काय सारखी स्तुति करावी. ते आता तुम्हां लोकांचे काम आहे.

माझ्या या भाषणाच्या शेवटी माझी एक कविता सादर करित आहे. या कवितेची चमत्कृतीपूर्ण अशी एक विशेषता आहे.... ती म्हणजे दोन दोन ओळींची कडवी आहेत, त्यातल्या दोन्ही ओळींचा शेवट एकाच शब्दाने केला आहे पण दोन्ही ओळीत त्या शब्दाचा अर्थ वेगवेगळा आहे.
उदाहरणादाखल आधी दोन दोन ओळींच्या काहीं स्वतंत्र रचना म्हणत आहे, त्यानंतर एक मोठी रचना प्रस्तुत आहे.
(भाषणासाठी तुम्हां सर्वांसमोर उभा राहून माझी काय अवस्था झाली आहे पहा या दोन ओळीत)

पाहून सर्व झालेले गोळा
उठतो रे पोटात गोळा


(ढोंगी साधू लोकांविषयी म्हटले आहे ज्यांचा वरचा देखावा वेगळा असतो आणि आतला कारभार वेगळा असतो, त्यासाठी दोन ओळी )

रामनाम जो भजे
तोच खाई रे भजे


(शेजाऱ्याची वस्तु मागून घेण्याचा शेजारणिचा शेजार धर्म पहा कसा असतो, त्यासाठी दोन ओळी )

दळावयास दे गं जाते
घेउनी मी ते घरीच जाते


(लांबचा प्रवास करुन घाम-धुळीने माखलेल्या चेहऱ्याने मित्राकडे आल्यावर)
कोण तू,? तो मला पुसे
मग मी ओशाळून तोंड पुसे

.
.
.
या दोन दोन ओळींनंतर याच धर्तीवर एक दीर्घ कविता प्रस्तुत आहे
थंडगार ही हवा
अशात गरम चहा हवा ।
मद्य बरे त्या परि
असे म्हणे ती मज परी ।
परी पुढे म्हणते -
जरी नसे तू मद्यपी
तरी एकदा हे मद्य पी ।
थंडी जरी असे तरी
आणते हे तर तरी ।
धरला कां ? हात सोडा
आणते मी बर्फ सोडा ।
थंडगार ही हवा
अशात मद्य चषक हवा ।
मी म्हणतो -
लागे हे अति चव दार
पण आधी ते लाव दार
पाहून विचारतील कोण प्याला
तरी दे अजूनी एक प्याला ।
कवटाळला हा चषक उरी
बाटलीत ना त्या काही उरी ।
थंडगार ही हवा
फक्त तुझा संग हवा ।
शेवटी संत तुकाराम महाराजांच्या शब्दात निरोप घेतो,
आम्ही जातो अमुच्या गावा
पुढचा पाठ तुम्हीच गावा ।
तुम्ही सर्वांनी माझे भाषण शांततापूर्वक ऐकले, भाषणामध्ये एकदाही टाळ्या वाजवून अडथळा आणण्याचा प्रयत्न केला नाही त्याबद्दल अनेक आभार आणि सर्वांना नमस्कार !
-अध्यक्षानंद !
(विवेक भावसार)