Tuesday, June 25, 2019

चाय

आइये अपने हाथों के कप आपस में टकरा कर बोलें .... चायर्स !
चाय..... सबसे ज्यादा पीया जाने वाला पेय। अंग्रेज इस देश में जाते-जाते बहुत सी चीजे छोड़ गए. बहुत सी व्यवस्थाएं, आदतें, भाषा, वेशभूषा, कुछ काले अंगरेज तथा साथ में और भी बहुत कुछ ! उनमें से एक है चाय ! हमारे आसपास शायद ही कोई ऐसा हो जिसने आज तक चाय न चखी हो।
चाय... जिससे हमारे दिन की शुरुआत होती है ! सिर्फ सुबह उठते ही नहीं बल्कि दिन में कई बार हम चाय के कप गटक जाते हैं ! किसी को हर घंटे-आधे घंटे में चाय लगती है तो कोई गिनती की ही चाय पीने वाले होते है ! किसी को खाने के पहले चाय लगती है तो कोई खाने के बाद चाय लेता है। तो कोई इतने शौकीन होते हैं कि उनको चाय के पहले चाय... और चाय के बाद में भी चाय जरूरी हो जाती है।
अंग्रेज जो सोफिस्टिकेटेड चाय छोड़ कर गए थे उसमें हम लोगो ने बहुत से प्रयोग कर के तरह तरह की चाय बना डाली। कभी अदरख वाली चाय तो कभी इलायची वाली चाय.... कभी मसाले वाली तो कभी केसर वाली या लेमन ग्रास वाली । कभी गाढ़े दूध की रब्बाडी चाय..... पतली गर्म पानीनुमा चाय। इन सबके अलावा भी चाय के अलग अलग रंग हैं.... अभिजात्य वर्ग की ग्रीन टी हो या बिना दूधवाली काली चाय, नीम्बू वाली चाय, चाय की थैली कप में लटका देनेवाली चाय आदि।
चाय बनाने के तरीके भी अलग अलग, सड़क किनारे गुमटी वाला पहले से बने दूध-पानी के मिश्रण में शकर, चायपत्ती मिला कर उबालने का हो या घर में गैस पर पतीले में पानी चढ़ाकर क्रमश: अदरख, शकर, चायपत्ती और अंत में दूध मिलाकर चाय बनाई जाती हो। स्टार होटलों में एक केतली में उबला हुआ चाय का पानी और साथ में शकर, दूध को अलग-अलग पात्रों में दिया जाता है जिससे पीने वाले अपनी रूचि अनुसार बना कर पीते हैं.... तो ठेलों-होटलों पर गिलास में मिलने वाली चाय जिसका इन सब झंझटों के बिना सीधा आनंद लिया जा सकता है। इन ठेलों-होटलों पर मिलने वाली चाय को भी भिन्न-भिन्न नाम प्राप्त हैं। स्पेशल, टिमटिम, गुलाबी, बादशाही, बंगाली जैसे नाम अलग-अलग शहरों में प्रसिद्ध हैं।
कहीं चाय काँच के गिलास में पेश की जा रही है तो कहीं कुल्हड़ में, कागज के कप में या चीनी मिट्टी के कप में। चाहे जैसे इसे पेश किया जाए, चाय तो चाय है, शौकीनों की पसंद।
चाय पीने के अलग-अलग कारण हो सकते हैं। तरावट के लिए या सुस्ती दूर करने के लिए चाय पीना तो सर्वमान्य कारण है। किसी काम से उकता गए हों तो मूड बदलने के लिए चाय पी जाती है या रात में पढ़ते समय नींद न आने के लिए भी लोग चाय का सेवन करते है, किसी का सर दर्द करता है तो वह उस बहाने चाय पी लेता है, भूख दबाने के लिए पी लेता है या मेहमाननवाजी में मेहमान के साथ पी लेता है। चाय के बिना मेहमाननवाजी पूर्ण नहीं होती। मेहमाननवाजी का सबसे सस्ता तरीका है चाय।
दोस्ती का माध्यम भी है चाय। कोई दोस्त जब मिलने आता है तो कदम बरबस ही चाय के ठेले की ओर चल पड़ते है और चाय के साथ गपशप का आनंद लिया जाता है। चाय के लिए समय का या मौसम का भी कोई बंधन नहीं, गर्मी का मौसम हो तो सुस्ती भगाने के लिए, ठण्ड का हो तो ठण्ड दूर करने के लिए और बारिशों में पकौड़ों के साथ चाय का आनंद तो वर्णनातीत है ! किसी को चाय उबलती गर्म पीने की आदत होती है तो कोई ठंडी गार कर के पीता है। सबकी अपनी-अपनी पसंद।
इस चाय ने पता नहीं कितनों को रोजगार दिया है. चाय बागानों से लेकर चाय की छोटी सी दुकान लगाने वाले तक। चाय की एक छोटी सी दुकान के सहारे अपने परिवार को पालते हुए बच्चों को पढ़ाकर बड़ा अफसर, इंजिनियर बनाए जाने के उदाहरण भी हमें देखने मिल जाते हैं। चाय की इन छोटी दुकानों पर दोस्तों के बीच चर्चाओं में से न जाने कितनी कल्पनाओं का सृजन हुआ होगा, जो बाद में वृहद आकार में साकार हो गई होंगी।
इन सब के बीच रेलवे की चाय ने भी पूरे भारत को एक सूत्र में बाँधने का फर्ज निभाया है क्योंकि कश्मीर से कन्याकुमारी तक कुछ एक हो न हो .... भारतीय रेलवे की चाय एक (जैसी) है !
तो आइये एक बार फिर से अपने हाथों के कप आपस में टकरा कर बोलें .... चायर्स !
- चायसेवनानंद !
 विवेक भावसार!

सलाहकार


सलाहकार अर्थात समस्या की हवा लगते ही उस समस्या का हल सुझाते हुए नई समस्या खड़ी करने वाला मददगार!
दुनिया में अगर सबसे बड़ा व्यवसाय कोई है तो सलाहकार का । ये अलग बात है कि कोई इसके पैसे वसूलता है तो कोई बिना पैसे लिये ही सलाह देता फिरता है। किसी को कोई काम आता हो न आता हो, सलाह देना जरूर आता है, चाहे कोई सुनने वाला मौजूद हो या गैरमौजूद, अथवा मौजूद होते हुए अनसुनी भी कर रहा हो।
टीवी पर क्रिकेट मैच चल रहा है, आपके साथ कई लोग बैठे उसे देख रहे हो तो उसमें से अधिकांश सलाहकार की भूमिका में प्रवेश कर जाते हैं। जैसे...ये बॉल गेंदबाज ने बिलकुल गलत फेंकी, यदि वह इसे आगे टिप्पा देकर खिलाता तो बल्लेबाज का आऊट होना तय था...या इस बैट्समैन को चौथे नंबर पर बैंटिंग के लिये भेजते तो ये सामने वाली टीम की धज्जियाँ उड़ा देता...आदि आदि। ये तो हुए बिना पैसे वाले सलाहकार, उधर टीवी के अंदरवाले कमेंटेटर भी कहाँ कम होते हैं, पैसे कमेंटरी के मिलते है लेकिन ये भी सलाहकार की भूमिका पकड़ लेते हैं और टीम के बिन मांगे सलाहकार बन जाते हैं। इस प्रकार आप पायेंगे कि दुनिया में प्रत्यक्ष रूप से काम करने वालों की अपेक्षा सलाह देने वालों की तादाद ही अधिक होती है।
सलाह देने के लिये किसी खास विषय में आपके पारंगत होने का कोई संबंध नहीं है। कोई भी, किसी भी विषय पर किसी को भी, कभी भी, कहीं पर भी, पूछे या बिना पूछे सलाह दे सकता है। बस एक बार अपनी समस्या का हलका सा जिक्र तो किसी से कीजिये, आपको ढेर सारी सलाहें थोक के भाव में मिल जायेंगी। उदाहरण के लिये कभी अपने पेटदर्द के बारे में जिक्र कर दें, आपको इसके कारण से लेकर उपचार और परिणाम तक की सलाहें मिल जायेंगी, जिनको संग्रहित कर आप एक थीसीस तक लिख सकते हैं। कोई कहेगा, ‘रात में खाने में गड़बड़ आ गया होगा।’ कोई पेट साफ न होने का निदान कर देगा। कोई इलाज के तौर पर ऐलोपेथी, आयुर्वेदिक, होमियोपैथिक से घरेलू इलाजों की झड़ी लगा देगा। कोई इसके एक्सरे, सोनोग्राफी आदि जाँच की सलाह देते हुए इसे गंभीरता से न लेने पर अपेंडिक्स, अल्सर, कैंसर जैसी बिमारियों से आपकी मीटिंग फिक्स करा देगा । इन सारी सलाहों को सुनते-सुनते एक बात तो तय है कि आप अपना पेटदर्द भूलकर सिरदर्द की शिकायत किसी से कर बैठेंगे और फिर दुबारा नई सलाहों का दौर शुरू हो जाएगा।
आजकल लगभग हर मासिक पत्रिका में या दैनिक अखबार के रविवारीय पृष्ठ पर ये सलाहकार सौंदर्य समस्या, व्यक्तिगत, स्वास्थ्य समस्या अथवा ज्योतिषीय सलाह देते हुए मिल ही जायेंगे। ‘मेरी प्रेमिका भाग गई, मैं क्या करूँ?’ एक दुःख भरा सवाल कोई पीड़ित प्रेमी दाग देता है; उस पर तुरंत सलाह देने वाली ये आंटी धीरज बंधाती हुई कहती है, ‘जीवन में ऐसे आशा-निराशा के प्रसंग आते ही रहते हैं, हमें उनका धीरज के सामना करना चाहिये। इस तरह समस्या के आगे घुटने टेक देने से कैसे काम चलेगा ? भागी हुई प्रेमिका का विचार छोड़ आपको देश के सामने खड़ी समस्याओं के बारे में सोचना चाहिये। देश की सबसे बड़ी समस्या महँगाई है, उसे ही अपनी प्रेमिका मान लीजिये । फिर देखिये, कैसे वह आपका साथ न छोड़ते हुए हमेशा आपके साथ बनी रहेगी ।
सौंदर्य विषयक सलाह देने वाली विशेषज्ञाओं की भी आजकल बहुतायत हो गई है। इनसे सिर के सफेद बालों से लेकर चेहरे पर हो रही फुंसियों-झुर्रियों और एड़ियों की दरारों तक समेत हर समस्या पर सलाह पाई जा सकती हैं ।
सलाह देने वाली ये कौम आजकल टीवी चैनलों पर भी कब्जा जमायें बैठी है। प्रायोजित कार्यक्रमों के जरिये लोगों की स्वास्थ्य समस्याओं पर मुफ्त सलाह देने की आड़ में अपनी दवाईयाँ बेचना, सांसारिक समस्याओं को सुलझाने के लिये ताबीज, यंत्र बेचना, भविष्य को सुगम बनाने के उपाय जानने के लिये जन्म कुंडलियाँ बनवाना ये सब सलाह की आड़ में दुकानदारी ही तो है।
सोशल मीडिया भी सलाहकारी का अपना रोल दमखम से निभा रही है। वाट़सएप या फेसबुक पर आध्यात्मिक और स्वास्थ्य संबंधित सलाहों की बाढ़ आई हुई है। सुबह-सुबह वाट्सएप खोलो तो मित्रों के रातभर के संचित संदेश आपकी गुड मार्निंग को बैड मार्निंग बनाने के लिये मजबूर कर देते हैं। यहाँ भी भिन्न भिन्न बीमारियों के इलाज की सलाहें, परिवार के सदस्यों से व्यवहार की सलाहें, धन के विनियोग की सलाहें बिन मांगे आपके द्वार खड़ी होती हैं।
सलाह लेने या देने का क्षेत्र काफी विस्तृत है। कोई बच्चों के स्कूल में एडमिशन के लिए सलाह माँगता है, तो कोई कपड़ों की खरीददारी की अच्छी जगह के लिए। कोई खाने की बढ़िया होटल के लिए सलाह माँगता है तो कोई मोबाईल के अच्छे मॉडल के लिए। इस प्रकार सलाह लेने देने के विषय की कोई सीमा नहीं है। इस प्रकार मांगी हुई सलाह देने में किसी के पसीने छूट जाते हैं तो कोई बहुत उत्साह में आकर सलाहकार बन जाता है।
कभी फीस चुकाकर भी आपको सलाह लेने की जरुरत पड़ जाती है । इनमें कर सलाहकार, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, वास्तु, निवेश सलाहकार आदि का समावेश है। यह सारी सलाहें काम न आने पर या संतुष्टि न पाने पर कुछ लोग पैसा खर्च कर ज्योतिष की सलाह लेने पहुँच जाते हैं।
इन सबके बीच मेरी भी आपको एक मुफ्त सलाह है, कि किसी की सलाह मत मानिये, जो मन को उचित लगे वही कीजिये। अब मेरी उपरोक्त सलाह को आप भले नकार दें, फिर भी सलाह तो आप मेरी ही मान रहे हैं।
सलाहानन्द !
(विवेक भावसार)

Tuesday, June 18, 2019

बनियान

ऐन वक्त पर तौलिया या रूमाल न मिलने पर हाथ या चश्मा पोछने के लिये बदन पर पहना जाने वाला मुलायम कपड़ा।
गंजीफ्रॉक के नाम से भी जाना जानेवाला यह कपड़ा बनियान नाम से अधिक प्रसिद्ध है वैसे नाम के हिसाब से इसका वायुयान अथवा जलयान से कोई सम्बन्ध नहीं है, ना ही बौद्ध धर्म की शाखा हीनयान या महायान से.
जोड़ी में खरीदा जाने वाला यह कपड़ा आम तौर पर व्यक्ति घर के बाहर होने पर कमीज के अन्दर पहना जाता है लेकिन घर के अन्दर होने पर केवल इसे ही बाहर पहना जाता है। इसका विज्ञापन केवल फिल्मी हीरो द्वारा ही किया जाना चाहिये ऐसी सभी बनियान निर्माताओं की सामान्य मान्यता है। विज्ञापनों में इसे अंदर की बात होने का हवाला देते हुए खुले आम बाहर दिखाया जाता है।
इसे पहन कर फ़िल्मी हीरो कई करतब कर सकता है, गुंडो-बदमाशों को मारपीट सकता है, लम्बी चौड़ी छलांगे मार सकता है। इससें सिद्ध होता है कि मानव की असली ताकत सिर्फ बनियान में होती है। बनियान की इस ताकत का मुकाबला विज्ञापनों में कोल्ड ड्रिंक ही कर सकता है। यह भ्रम फ़ैलाने की भी कोशिश विज्ञापनों में की जाती है कि इसे अर्थात बनियान पहन कर घूमने से पहननेवाले पर सुंदरियां मोहित हो जाती हैं। इस भ्रम में आकर यदि आप भी केवल बनियान पहन घर के बाहर निकल जायें तो ये असभ्यता मानी जाकर उन्हीं सुंदरियों द्वारा पिटने की नौबत आ सकती है।
रोजाना पहनने में आने वाला बनियान पुराना होने पर जिस प्रकार पहले दरवाजा-खिड़की-फर्नीचर-बर्तन पोंछने, फिर और ज्यादा पुराना होने पर गाड़ी पोंछने के लिये किसी कोने में पड़ा रहता है, यही हालत कमोबेश इंसान की भी होती है।
- व्याख्यानंद !
(विवेक भावसार )

Friday, June 14, 2019

स्फूर्ति रस

आज से लगभग नौ-दस वर्ष पूर्व लिखी रचना एक बार पुनः आपके समक्ष प्रस्तुत है !

बड़े बुजुर्गोसे भी सुना था और मैंने भी अपने बचपन में देखा है कि हमारे इन्दौर शहर की दिनचर्या काफी सुबह से ही शुरु हो जाती थी। सुबह की पाली के मिल मजदूर सुबह 7 बजने के पहले ही घरों से निकल जाते थे। सुबह-सुबह सड़कों की सफाई पूरी हो कर मशकों से उनकी धुलाई भी हो जाया करती थी । पूरे शहर के बाजार सवेरे 8-9 के दरमियान खुल जाते थे। बाहर गाँव का व्यापारी सुबह जल्दी आकर अपना सौदा कर के शाम के पहले लौट जाया करता था। चाहे दफ्तरोंमें चले जाईये या बैंकों में, अस्पतालों में या दुकानों में, जनता का काम लोग बड़ी फूर्ति से निपटा दिया करते थे।
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और अब आज का जमाना है, हर जगह कम्प्यूटर आ गये हैं, तेज रफ्तार का युग है फिर भी हर जगह सुस्ती, आलस और काम टालने की प्रवृत्ति का जोर है। बाजार देखो तो 12 बजे तक दुकानों के शटर ही खुलते हैं। दुकानों में जब झाडू लगती है तब सूर्य नारायण ठीक सर के उपर नब्बे डिग्री के कोण से निरीक्षण कर रहे होते हैं।
दफ्तर शुरू होने के निर्धारित समय पर पहुँच जाओ खाली टेबल-कुर्सियाँआपका स्वागत करती हैं। अफसर-कर्मचारी नदारद होते हैं। अस्पतालों में मरीजों की लम्बी कतारे लगी होती हैं परंतु जिन्हें सबसे पहले आ जाना चाहिये वो चिकित्सक ही सबसे अंत में आते हैं। यानी, हर जगह जिसे भी मौका मिलता है वह इस आलस और काम टालू प्रवृत्ति में अपना अधिक से अधिक योगदान देने में तत्पर रहता है । दिनों के काम महिनों तक, और महिनों में जो काम हो जाने चाहिये वह बरसों तक लटकते रहते हैं।
लेकिन यह सब कैसे सुधरे? इसे पटरी पर लाने का क्या उपाय हो सकता है? ....यहीं सोचते हुए मैं सुबह भगवान के सामने बैठा दीया-बत्ती-प्रार्थना कर रहा था और अचानक.....अचानक मेरे सामने स्वयं भगवान प्रकट हो गये और बोले-
"वत्स, तू जो सोच रहा है, बहुत ही अच्छा सोच रहा है। मैं भी चाहता हूँ मानव इस कुप्रवृत्ति से दूर हो । इस दुनिया को आलस और कामचोरी से मुक्ति दिलाने का उपाय मेरे पास है पर मैं अकेले इस काम को नहीं करुंगा। इसमें मुझे तुम्हारा भी सहयोग चाहिये।''
मैंने कहा " अवश्य भगवन् ! लेकिन मैं किस प्रकार से सहयोग दे सकता हूँ ?''
तभी भगवान ने जादूगर की तरह हवा में हाथ घुमाया और क्षणमात्र में एक कलश उनके हाथों में प्रकट हुआ। भगवान ने वह कलश मेरे हाथों में थमा दिया।
मैने पूछा '' ये क्या है प्रभु? मुझे ये क्यों दे रहे हैं आप ?''
भगवान बोले " तुम्हें आलस और कामचोरी की आदत से इस शहर को मुक्ति दिलाना है ना ? यह एक विशेष स्फूर्ति रस का कलश है। इस स्फूर्ति रस का सूक्ष्म से सूक्ष्म कण भी शहर के हर नागरिक के शरीर में पहुँच जाये तो सारा शहर स्फूर्तिमय हो जायेगा और तुम्हारी समस्या हल हो जायेगी। अब ये तुम्हे सोचना है कि यह काम तुम्हें कैसे पूरा करना है।''
इतना कहकर प्रभु अंतर्धान हो गये। इधर कलश हाथ में लेकर मैं सोचने लगा कि यह काम कैसे हो ? कईं विकल्प मन में आने लगे...सोचा हर घर जाकर इसे बाँटू, पर इसमें तो बहुत समय लग जायेगा और ये स्फूर्ति रस पूरा भी नहीं पड़ेगा।
फिर सोचा हर शहरवासी चाय तो पीता ही है, हर होटल, चाय के ठेले पर जाकर एक-एक बूँद चाय में मिलवा देता हूँ। परंतु हर शहरवासी तो होटल जा कर चाय पीता नहीं सो यह आइडिया भी छोडना पड़ा।
सोचते-सोचते कलश में डूबी अपनी उंगली उठाकर मैने मुँह में डाल ली। उस स्फूर्ति रस का जीभ पर स्पर्श होते ही ऐसा चमत्कार हुआ... कि अचानक आईडियों के भंडार खुल गये। कल्पना का घोड़ा वायुवेग से सरपट दौड़ा और कई तरकीबों की सैर करते हुए एक तरकीब पर आकर रुक गया।
मैंने मन ही मन कहा "मूरख सारा शहर जिस नदी-तालाब का पानी पीता है, तू इस कलश को उसी पानी में मिला दे। बस तेरा काम तो बन गया समझ !''
मैं तुरंत शहर को पानी की आपूर्ति करने वाले फिल्टरेशन प्लांट की ओर निकल पड़ा और वहाँ पहुँच कर चुपके से स्फूर्ति रस का पूरा कलश शहर में जाने वाले पानी में उंडेल दिया। "अब शहर के घर-घर में ये स्फूर्ति रस वाला पानी पहुँच जायेगा। पूरे सौ प्रतिशत ना सही 60-70 प्रतिशत नागरिक तो इसके प्रभाव में आ ही जाएंगे'' ये सोचते हुए खुशी-खुशी मैं घर आ गया।
और वाकई कुछ ही दिनों में असर सामने आ गया। सारे शहरवासी फूर्ति से ओतप्रोत हो गये। बाजार सुबह जल्दी खुलने लगे, दफ्तरों में सारे कर्मचारी समय पूर्व पहुँचने लगे। जिस काम की सरकार ने 15 दिन की समय सीमा तय कर रखी थी, लोगों का वह काम तीसरे ही दिन हो जाने लगा। गैस का नम्बर लगाकर घर आओ, पीछे से गैस सिलेंडर लेकर गैस वाला हाजिर ! बिजली, टेलीफोन की शिकायत-तत्काल हल। अदालतों में मुकदमों के सफाये होने लगे। बैंकों में फटाफट लोन पास होने लग गये। आरटीओ में हाथो-हाथ गाड़ियों के रजिस्ट्रेशन और लाइसेंस बनने लग गये। अस्पतालों में मरीज के पहुँचते ही इलाज होना शुरू हो गये। नगर निगम में एक दिन में मकानों के नक्शे पास होने लगे, अन्य नागरिक शिकायतों का निराकरण भी तुरंत हो जाने लगा। कॉलेज की कक्षाओं में कोर्स समयपूर्व ही पूरे कर दिये गये। विश्वविद्यालय की परिक्षाएं भी समय पर सम्पन्न होने लगी, जिससे छात्रों के परीक्षा परिणाम भी समय पर आ गये।
फूर्ति रस ने ऐसा कमाल दिखाया कि हर दिशा में, हर विभाग में जैसे फूर्ति की प्रतियोगिता चल रही हो । जो पुल पांच-पांच साल में नहीं बनते थे, छः माह में पूरे होकर जनता के लिये खोल दिये गये। जिन सड़कों को बनने में दो-दो साल लग जाते थे तीन माह में पूरी होने लगीं।
इधर चोरों ने भी फूर्ति से चोरी करना चालू कर दिया, पर पुलिस ने उनसे भी ज्यादा फूर्ति से अपराधियों को पकड़ना चालू कर दिया। आखिर इससे तंग आकर अपराधियों ने अपराध करना ही छोड़ दिये।

होते-होते इसकी खबर पहले प्रदेश में, फिर सारे देश में फैल गयी और हडकंप मच गया। समाचार पत्र, टीवी चैनल, रेडियो, सब फूर्ति के किस्से बताने में लग गये। आखिर राजधानी में कुछ नेताओं के पेट में कुलबुलाहट सी होने लगी। पक्ष्-विपक्ष के इन सारे नेताओंने सोचा, अगर ये रोग सारे देश-प्रदेश में फैल गया तो बड़ी मुसीबत आ जाएगी, हमारा तो धंधा ही चौपट हो जाएगा।
आखिर इस मामले की जाँच के लिये सारे चिंतित लोगों की ओर से प्रदेश के मुखिया के समक्ष जाँच आयोग की माँग की गई। मुद्दों को लटकाने की सरकारी परंपरा के विपरित जाँच आयोग की मांग तुरंत मान ली गई। जाँच आयोग भी तय हो गया पर बाहरी जाँच आयोग जाँच में बहुत ही ज्यादा समय लगा देगा, इसलिये जाँच को स्फूर्ति युक्त शहर के ही किसी विशेषज्ञ से कराने का फैसला लिया गया, ताकि आम जाँचों के विपरित फूर्ति से जाँच हो और जल्दी से परिणाम सामने आए।

खैर, जाँच भी तुरंत चालू हुई और आशा के अनुरुप परिणाम भी जल्द ही सामने आ गया, कि....
"किसी स्फूर्ति रस मिले पानी पीने के परिणाम स्वरुप सारे लोगों में फूर्ति की यह धारा बह रही है," ...साथ ही जाँच में यह भी पाया गया कि “इन सबके बावजूद कुछ बड़े-बड़े लोग आज भी इस स्फूर्ति रस के प्रभाव से अछूते पाये गये हैं। इन महान लोगों ने अपनी सुस्ती और मक्कारी के सद्गुणों को बचाकर रखा है।" इन लोगों की गहन जाँच से सामने आया कि "यह सारे महान लोग तो कभी निगम द्वारा वितरित पानी पीते ही नहीं हैं। इनकी प्यास बुझाने के लिये घरों में कोल्ड्रिंक की बोतले या मिनरल वाटर की बोतलें भरी पड़ी है, और एक विशेष समय में ये तो पानी को हाथ भी नहीं लगाते।"
जाँच की मांग करने वाले नेताओं के हाथ जाँच का परिणाम पहुँचते ही सभी नेता इस विचार में व्यस्त हो गये कि इस फूर्ति प्रभाव को कैसे नष्ट किया जाय ? मैं भी उत्सुक था यह जानने के लिये कि अब ये सारे लोग क्या उपाय करते हैं।
इतने में मुझे श्रीमतीजी ने मेरे कंधे पकड़ कर जोर से हिलाया और लगभग चीखते हुए कहा-"" सुनते हो ? उठो...अरे कब तक सोते रहोगे ? दिन के 11-11 बजे तक सोये पड़े रहते हो । भगवान जाने, ये आदत कब जायेगी..... आज दफ्तर नहीं जाना क्या ? महिने की पहली तारीख है, सैलेरी लाना है कि नहीं ?'
.-स्वप्नानंद!
( विवेक भावसार)

Wednesday, June 12, 2019

आधुनिक अतुकांत कविता बनाने की रेसिपी

सोशल मीडिया पर इनदिनों कवियों की बाढ़ आई हुई है कोई छंदबद्ध काव्य लिख रहा है तो कोई गीत. कोई शेर-ओ-शायरी में हाथ साफ़ कर रहा है तो किसी को आधुनिक कविता रचने की ललक सवार है ऐसे में साधारण पाठक जिसे कविता का क भी लिखना नहीं आता, उसके मन में भी कविता रचने का शौक हिलोरे मारने लगता है लेकिन सिद्धहस्त कवियों वाली वो बात, वो विचार, वो भाव कहाँ से लाये ? तो ऐसे ही मित्रों के लिए प्रस्तुत है एक अतुकांत कविता बनाने की रेसिपी जब वो अतुकांत है तो आधुनिक अपनेआप ही हो जाती है, यह अलग से बताने की जरुरत नहीं ... तो चलिए बनाते हैं एक अतुकांत कविता.
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सामग्री:
 दो कोरे कागज, पेन, एक अंग्रेजी में आसान कहानी (शुरुआती / नए कवियों के लिये)।

विधि:
सबसे पहले अंग्रेजी की कोई आसान सी 15-20 वाक्यों की कहानी लीजिये। कोरे कागज पर कहानी के प्रत्येक वाक्य को अलग-अलग एक के नीचे एक लाईन छोड़ कर लिख डालिए। अब अंग्रेजी वाक्य के प्रत्येक शब्द का हिंदी अर्थ उसी शब्द के नीचे लिखते जाईए. याद रहे, किसी प्रकार का भावानुवाद आवश्यक नहीं है। व्याकरण, तुकबंदी, यमक, अलंकार आदि की चिंता मत कीजिए । सारे वाक्यों के अर्थ लिख लेने के बाद अब केवल हिन्दी अनुवाद को दोबारा दूसरे कोरे कागज पर लिख लीजिए. किसी विचित्र से, अच्छे से शीर्षक से उसे सजाइये। आवश्यक नहीं कि शीर्षक कविता के विषय से ही सम्बंधित हो। लीजिए आपकी ताजा-ताजा कविता तैयार है । तुरत किसी पत्रिका में प्रकाशन हेतु भेज दीजिए या सोशल मिडिया पर दोस्तों के साथ शेयर कीजिए। 50 - 75 कविता बना लेने के बाद कविता संग्रह भी निकाल सकते हैं, जो किसी महान पुरस्कार के पाने का आधार बन सकता है । कुछ सामयिक या सामाजिक विषयों पर कविता लिखना चाहे तो इच्छित विषय के समाचार का पेरेग्राफ अंग्रेजी के अखबार से लेकर इसी रेसिपी की सहायता से आप कोई क्रांतिकारी कविता भी बना सकते हैं ।


उदाहरण के लिए प्रस्तुत है एक आपकी परिचित कहानी –
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One hot day, a thirsty crow flew all over the fields looking for water. 
एक गर्म दिन, एक प्यासा कौआ उड़ा सब दूर मैदानो पर देखने पानी.
For a long time, he could not find any. 
बहुत देर, वह नही पाया ढूंढ कुछ भी।
He felt very weak, almost giving up hope.
वह महसूसा बहुत कमजोर, लगभग दी छोड़ आशा। 
Suddenly, he saw a water jug below him. 
अचानक, उसने देखा एक पानी का घडा नीचे उसके। 
He flew straight down to see if there was any water inside. 
वह उड़ा सीधे नीचे देखने क्या वहॉं था कुछ पानी अंदर ।
Yes, he could see some water inside the jug!
हॉं, वह सकता था देख कुछ पानी अंदर घड़े के। 
The crow tried to push his head into the jug. 
कौआ कोशिश करता रहा धकेलने उसका सर अंदर उस घडे़ में। 
Sadly, he found that the neck of the jug was too narrow. 
दुःखपूर्वक, उसने पाया कि गला घड़े का था बहुत संकरा। 
Then he tried to push the jug down for the water to flow out. 
तब उसने किया प्रयत्न धकेलू नीचे घड़ा कि पानी बहे बाहर ।
He found that the jug was too heavy.
उसने पाया कि घड़ा था बहुत भारी । 
The crow thought hard for a while. 
कौए ने सोचा गहन थोड़ी देर । 
Then looking around him, he saw some pebbles. 
तब देखा आसपास अपने, उसने देखे कुछ कंकर।
He suddenly had a good idea. 
उसने अचानक पाइ एक बढ़िया कल्पना।
He started picking up the pebbles one by one, 
उसने शुरु किये उठाने वह कंकर एक के बाद एक.
dropping each into the jug. 
डाले प्रत्येक को अंदर घड़े के.
As more and more pebbles filled the jug, 
जितने ज्यादा और ज्यादा कंकर, भर दिया घड़ा ।
the water level kept rising. 
पानी का स्तर बढ़ता रहा उपर।
Soon it was high enough for the crow to drink. 
जल्द ही था उंचा पर्याप्त कौए को पीने ।
His plan had worked!
उसकी कल्पना थी काम कर गई।
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यह है तैयार कविता -

गागर में कंकर 
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एक गर्म दिन, एक प्यासा कौआ उड़ा सब दूर मैदानो पर देखने पानी.
बहुत देर, वह नही पाया ढूंढ कुछ भी।
वह महसूसा बहुत कमजोर, लगभग दी छोड़ आशा।
अचानक, उसने देखा एक पानी का घडा नीचे उसके।
वह उड़ा सीधे नीचे देखने क्या वहॉं था कुछ पानी अंदर ।
हॉं, वह सकता था देख कुछ पानी अंदर घड़े के।
कौआ कोशिश करता रहा धकेलने उसका सर अंदर उस घडे में।
दुःखपूर्वक, उसने पाया कि गला घड़े का था बहुत संकरा।
तब उसने किया प्रयत्न धकेलू नीचे घड़ा कि पानी बहे बाहर ।
उसने पाया कि घड़ा था बहुत भारी ।
कौए ने सोचा गहन थोड़ी देर ।
तब देखा आसपास अपने, उसने देखे कुछ कंकर।
उसने अचानक पाइ एक बढ़िया कल्पना।
उसने शुरु किये उठाने वह कंकर एक के बाद एक.
डाले प्रत्येक को अंदर घड़े के.
जितने ज्यादा और ज्यादा कंकर, भर दिया घड़ा ।
पानी का स्तर बढ़ता रहा उपर।
जल्द ही था उंचा पर्याप्त कौए को पीने ।
उसकी कल्पना थी काम कर गई।
- विवेक भावसार

Tuesday, June 11, 2019

पोस्ट मार्टम ऑफ़ कहावत - "भागते भूत की लंगोट भली"


कुछ मुहावरों-कहावतों का हम गहराई से अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि उस कहावत के पीछे अनेक अर्थ छुपे होते हैं।कहावतों के इन्ही छुपे हुए अर्थों को पोस्टमार्टम कर आपके सामने लाने की कोशिश की गई है। इसी क्रम में उपरोक्त कहावत - "भागते भूत की लंगोट भली !" का विश्लेषण किया जाए तो निम्न बिंदू सामने आते हैं-

क्या भूत कपड़े पहनता है ?
 यदि कपड़े पहनता है तो क्या केवल लंगोट ही पहनता है ?
 यदि लंगोट भली, तो बाकी कपड़े क्या खराब है ?
 यदि बाकी कपड़े ख़राब और लंगोट भली तो क्या खराबी से बचाने के लिये लंगोट जेब में डालकर घूमता है ?
 भागते की भली तो क्या खड़े हुए भूत की लंगोट खराब है ?
 क्या लंगोट ब्रांडेड है ? है तो किस ब्रांड की ?
 भूत केवल भागते हैं या उड़ते भी हैं ?
 भागते हैं तो क्या आपस में रेस भी लगाते हैं ?
 लंगोट पहनने वाले भूत क्या पहलवान होते हैं ?
 भागने के अलावा क्या लंगोट पहन कर दंगल भी लडा करते हैं?
 क्या ये इतने गरीब होते हैं कि केवल लंगोट ही पहन पाते हैं ?
 रंगीन लंगोट पहनते हैं या सफेद या पारदर्शी ?
 क्या भूतों के लंगोटिया यार होते है ?
....आदि-आदि.
भूत की लंगोट पर गहन चिंतन में लीन
- (अद्)भूतानन्द!
विवेक भावसार

Friday, June 7, 2019

सिलबट्टे पर पति (के दिमाग) की चटनी बनाने की रेसिपी!

रेसिपीज की कड़ी में एक और रेसिपी
यूं तो आपने तरह तरह की चटनियाँ बनाई और खाई होंगी, लेकिन आज जो चटनी हम बताने जा रहे हैं वो चटनी आपने इससे पहले न सुनी होगी, न देखी होगी... तब तो बनाने और खाने की बात तो दूर ही है. तो हो जाइए तैयार एक नई रेसिपी के लिए ....


एक सिलबट्टा, चार-आठ हरी मिर्च, लहसुन, धनिया, एक गिलास सादा (बिना फ्रिज, मटके का) पानी, जिसकी चटनी बनानी हो वह पति.( सीदा सादा, मुलायम पति हो तो चटनी जल्द बन जाती है... अन्यथा स्वयं की चटनी बनने की नौबत आ जाती है।) ध्यान रहे... यह चटनी केवल अपने ही पति के दिमाग की बनती है, किसी और के पति का इसमें रत्तीभर भी उपयोग नहीं होता।

शाम को पति के काम पर से लौट आने के पहले सिलबट्टा धोकर तैयार रखें. गर्मी का मारा थका हारा पति घर लौट आये तब उसे बैठा कर एक गिलास सादा पानी सामने रख दें।
पानी ठंडा न होने की शिकायत पर "मटका शाम को ही फूट गया" का कारण सामने रख दें। पति के विशेष ध्यान न देने पर पानी के गिलास खत्म होने के पहले ही मुन्ना राजा ने खिडकी का काँच तोड़ देने की शिकायत करें । पति का दिमाग अब इससे दरदरा हो जाएगा।
अब एक और शिकायत आगे करें कि पड़ोसी ने दिन में नाली का पानी अपने घर के सामने फैला दिया। पति का दिमाग इससे थोड़ा और बारीक हो जायेगा। इसे और अधिक महीन पीसने के लिये एक शिकायत का पुलिंदा और खोल दें कि गैस खत्म होने में है और दूसरा सिलेंडर भी खाली पड़ा है।
अब चटनी थोड़ी और महीन हो जायेगी, इसे और ज्यादा महीन करने के लिये सिलबट्टा सामने धर के पीसने के लिये हरी मिर्च, धनिया, लहसुन निकाल लें ।
अब सामने से सवाल आयेगा, सिलबट्टा क्यों निकाला? तब जवाब दें कि मिक्सी का ब्लेड गप्पू ने तोड़ डाला है। सिलबट्टा मिर्च वगैरह वैसे ही छोड़ दें । क्योंकि अब दिमाग की चटनी पूरी तरह तैयार हो गई है तथा बरतन में निकाले जाने के लिये तैयार है।
मुन्नू और गप्पू की पिटाई शुरू हो उससे पहले खाने की थाली परोस दें । भोजन के साथ-साथ बनी हुई चटनी धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी।
यह चटनी कभी-कभार बनाने और खिलाने के लिये ठीक है, रोजाना बनाने से हाजमे के लिये खतरा है।
तो बनाईये चटनी और बताईये कैसी बनी?
-चटन्यानंद!
(विवेक भावसार)

Monday, June 3, 2019

भूत मजाक भी नहीं कर सकता?




काफी पुरानी बात है...कई साल पहले की। उस समय किसी के पास TV- मोबाइल नहीं हुआ करते थे। मोबाइल, TV नहीं होते थे इसलिए रात का खाना-वाना निपटा के लोग किसी के ओटले पर आ बैठते थे, न कि आजकल की तरह मोबाइल में लगे घर में घुसे रहा करते। गपशप की चौपाल जम जाती थी। तरह-तरह की बातें हुआ करती थी। चुटकुले,किस्से-कहानियां, किसी ने देखी नई-नई फ़िल्म की स्टोरी डायलॉग एक्शन सहित, किसी की चुगलियाँ ...और न जाने क्या क्या।

इन्हीं सब बातों में एक विषय अक्सर निकल ही आता था और वो था भूत और उसकी कहानियाँ। गपशप के माहिर कुछ लोग स्पेशलिस्ट की तरह भूत-भूतनियों की किस्में, उनके रहने की जगह, उनसे बचने के तरीके आदि के बारे में इस विशेषज्ञता के साथ बताते की मानो भूतों से रेगुलरली डील करा करते हों।

ऐसे समय मोहल्ले के ही कुएं के पास लगे इमली के बड़े से पेड़ पर रहने वाले भूत की बात जरूर निकलती। कुछ लोगों के पास इस पेड़ पर रहने वाले भूत के बारे में अपने बुजुर्गों से सुनी कहानियाँ होती थी और उन कहानियों का बाकायदा अनेक बार पारायण होता। कहानी की पुष्टि के लिए स्वयं द्वारा उस भूत को देखे जाने की गवाही भी दी जाती। उस इमली के पेड़ पर से दिन में इमलियाँ तोड़ने में तो कोई डर नहीं लगता था लेकिन अंधेरा हो जाने के बाद उसके नीचे से गुजरने में भी जान निकल जाती थी । कभी निकलना भी पड़े तो राम नाम जपते या हनुमान जी को याद करते तेजी से निकल जाने में ही भलाई समझते थे।

उन्हीं दिनों शहर में एक अंग्रेजी हॉरर सिनेमा लगा था, एक्जॉरसिस्ट। जिसे हम कुछ हमउम्र मित्रों के साथ शाम का शो देख आये थे। बेहद डरावनी फ़िल्म थी। उछलते बिस्तर, पूरे ३६० डिग्री में सर घुमा देने वाली हरी नीली डरावनी आँखों वाली प्रेतात्मा का वास होने वाली लड़की, मुंह से न जाने कैसे हरे-काले रंग की उलटियाँ करती
 बहुत ही वीभत्स और डरावना था शो के बाद रात के सन्नाटे में सुनसान सड़क से घर लौटते हुए हर साधारण सी आवाज पर भी चौंकते हुए बड़ी मुश्किल से घर पहुँचे थे। उसके कई दिनों बाद तक रात में घर में टॉयलेट जाते भी डर लगता था।

ऐसे ही किसी दिन एक घर के ओटले पर बैठे-बैठे फिर उसी इमली के पेड़वाले भूत का विषय निकल आया। ये घर भी उसी इमली के पेड़ के सामने ही था। ऐसे में किस्सा सुनाने वाला अपने साथ एक डरावना बैकग्राउंड लेकर किस्से को प्रभावी बना रहा था। तभी लगभग पंद्रह-सोलह साल का एक लड़का बोल उठा, "आप लोग कुछ भी सुने-सुनाए किस्से बताये जा रहे हो, मुझे पता है वह असली किस्सा।"

"तो तुम ही बताओ, क्या है असली बात?"

"बात ऐसी है दोस्तों, एक बड़ा ही मसखरे टाइप का किशोर उम्र का लड़का इस मोहल्ले में रहता था। नौवी-दसवीं में पढ़ता था । लोग उसे जग्गू के नाम से ही ज्यादातर जानते थे। उसकी आदत थी हर किसी के साथ मजाक करने की। झूठे-मुठे किस्से सुनाकर वह लोगों को बेवकूफ बनाया करता था। एक बार उसने लोगों से कहा, कुछ ही दिन पहले उज्जैन में सिंहस्थ के मेले में एक औघड़ योगी बाबा से मुलाकात हुई है। उन्होंने मुझे भूतों को प्रकट करने की विद्या सिखाई है। चाहों तो मैं तुम्हें भूत प्रत्यक्ष दिखला सकता हूँ। लेकिन बड़ा खतरनाक काम है, जान का जोखिम है।"
उसकी बात सुनकर सबने भूत को देखने की इच्छा प्रकट की।


तब जग्गू ने कहा,
"दो दिन बाद अमावस है, रात ठीक बारह बजे मैं तुम्हे भूत से मिलवाऊंगा। जो हिम्मत कर सकता है केवल वही आये, इसी इमली के पेड़ से भूत उतर कर आएगा।"

सब तय हो गया। जग्गू ने भी भूत दिखाने का अपना प्लान बना लिया। प्लान के मुताबिक जग्गू बाजार से एक लंबी रस्सी खरीद लाया और उसे काले रंग से रंग दिया। अमावस के दिन पौ फूटने से पहले वह रस्सी को इमली के पेड़ की एक शाखा पर बांध दी और आड़ में छुपा कर आया। साथ मे एक सफेद चोगा भी रख आया।


रात 11-30 बजे तक कुछ हिम्मत वाले जो भूत देखना चाहते थे वे सारे पेड़ से कुछ दूर इसी जगह जहाँ हम लोग अभी बैठे हैं... आकर इकठ्ठा हो गए। जग्गू भी आ गया । आधी रात और अमावस होने से अंधेरा बहुत घना था। बड़ी मुश्किल से ही सामने कुछ दिखाई दे पा रहा था। हवा चलने से पत्तों की सरसराहट सुनाई दे रही थी। कभी-कभी पेड़ पर लटके चमगादड़ तेज आवाज के साथ फड़फड़ाते हुए उड़ने लगते। रात के कीड़े, झींगुर आदि की आवाजें सन्नाटे में गूंज रही थीं ... और ऐसे में भूत दर्शन का कार्यक्रम ! लोग जैसे-तैसे एक दूजे के हाथों को थामे हिम्मत कर के खड़े थे।

जग्गू ने सब को वहीं खड़ा होने के लिए कहा और कहा... "मैं उस पेड़ के पीछे जाकर मंत्र पाठ करूँगा, बारह बजते ही तुम लोग सिटी बजा कर इशारा करना, भूत पेड़ से उतर कर हवा में तैरते हुए दिखाई देगा।"


सब ने हामी भरी।

जग्गू पेड़ के पीछे चला गया और सावधानी से बिना किसी को नजर आये पेड़ पर चढ़ गया। वहाँ छुपाकर रखे सफेद चोगे को पहन लिया और पेड़ पर छुपा कर रखी रस्सी को कमर में बांध लिया ।

बारह बजते ही दूर खड़े लोगों ने सिटी बजा कर इशारा किया तब जग्गू  पेड़ की डाल से रस्सी के सहारे लटकते हुए नीचे आने लगा और रस्सी की सहायता से हवा में लहराते हुए मुंह से विचित्र आवाजे भी निकालने लगा । काली रस्सी अंधेरे में नजर न आने से सफेद चोगा पहने झूलते हुए 
जग्गू को लोग हवा में तैरता भूत समझ रहे थे। अंधेरे में पेड़ के इर्द गिर्द लहराते सफ़ेद छायानुमा भूत को देख लोग डर कर पेड़ से और ज्यादा दूर हो गए।

कुछ देर तक लहराने के बाद जग्गू की कमर में बंधी रस्सी जो कहीं से कमजोर थी, अचानक टूट गई और उससे बंधा जग्गू सीधे नीचे कुएं में जा गिरा। गिरते-गिरते कुएं की मुंडेर से सर टकराने के कारण वहीं उसकी मौत हो गई। चीखते हुए गिरने के कारण देखने वाले सारे लोग डर के मारे वहां से भाग खड़े हुए।

सुबह जब लोगों ने कुएं में देखा तो जग्गू की लाश पड़ी मिली। लोगों ने तब यही समझा कि इमली वाले भूत ने जग्गू की जान ली है और तब से ही ये कहानी चल पड़ी है। 
इस तरह जग्गू की मजाक उस पर ही भारी पड़ गई। असल में वहाँ कोई भूत था ही नहीं, समझे आप लोग ?"

इतना कह कर वह लड़का चुप हो गया।


तभी किसी ने कहा,
" भाई तुम तो इस मोहल्ले में पहले कभी दिखे नहीं, नए लगते हो।

तब वह बोला, " मैं तो य
हाँ का बहुत पुराना रहने वाला हूँ, बीच में कुछ दिनों से बहुत दूर चला गया था, अभी-अभी ही लौटके वापस आया हूँ।"

"क्या नाम है तुम्हारा? " किसी ने पूछा।

उसने कहा," जग्गू....मतलब जगमोहन नाम है मेरा।"

"अच्छा ! लेकिन रहते क
हाँ हो?"

"वही, उसी इमली के पेड़ की उस बड़ी वाली डाल पर।"

उसने पेड़ की ओर हाथ का इशारा करते हुए कहा।
सारे लोग उस तरफ देखने लगे।

"मजाक करते हो क्या... पेड़ पर भी कोई रहता है ?" एक ने पूछा।

"तो क्या भूत मजाक भी नहीं कर सकते? खी..खी..खी" जगमोहन ने हँसते हुए कहा।
सबने मुड़ के जगमोहन की ओर देखा, लेकिन व
हाँ तो कोई भी नहीं था।

-जगभूतानंद!
(विवेक भावसार)