Tuesday, July 30, 2019

भूलभुलैया

मेरे पिता उनकी नौकरी के शुरुआती समय में  एक छोटे गांव में रहते थे। उन दिनों इतनी सुविधाएं नहीं हुआ करती थीं। इस वजह से एक बार ऑफिस की कैश कहीं देने खुद ही जाना पड़ा। रात का समय था। उन्हें जिस जगह जाना था, वहाँ जाने के लिए एक जंगल का हिस्सा पार करना होता था। रास्ते में क्या हुआ ये उन्हें याद नहीं, लेकिन रोजाना के रास्ते पर वो लगभग तीन-चार घंटे घूम रहे थे। वहीं के वहीं गोल-गोल चक्कर लगा रहे थे! तभी एक बैलगाड़ी वाला पास से गुजरने लगा, और तब जाकर वे बैलगाड़ी के सहारे जंगल पार कर पाए। उनका बताया वह संस्मरण आज भी हमें याद है, लगता है मानो वह हमारा स्वयं का अनुभव है।
ये जंगल की भूलभुलैया क्या चीज है, कहकर नहीं बताई जा सकती। कोई उस पर विश्वास करेगा, कोई नहीं भी करेगा। मैंने स्वयं कभी अपने जीवन में इसका अनुभव नहीं लिया। इसलिए इस पर कुछ कहने का मेरा कोई अधिकार नहीं। लेकिन आज जब घर का किराने का सामान खरीदने एक डिपार्टमेंटल स्टोर में जाना हुआ और एक ऐसी ही भूलभुलैया में फँसने का अनुभव हुआ।
ख़रीददारी की भूलभुलैया - आकर्षक रूप से सजी वस्तुएं, सामानों की वजह से अनजाने ही इन चीजों की ओर मन आकर्षित होता है। मेरी ट्रॉली कब भर गई पता ही न चला। पहले किराना सामान, फिर कपड़े दिखाई पड़े, महीने की खरीदारी में वे भी ट्रॉली में आ बसे। सरकार गला फाड़ चिल्ला रही.. प्लास्टिक का इस्तेमाल न करें। लेकिन फिर भी करीने से सजी कुछ चीजें मुझे मोहित कर मेरी ट्रॉली में समा गईं। काँच के सामान रखी एक अलमारी से मेरी ट्रॉली हल्के से टकराई और मुझे मेरा बैलगाड़ी वाला मिल गया। बिलिंग काउंटर पर जाने से पहले दस मिनट शांति से बैठकर जो अनावश्यक सामान ट्रॉली में भर लिया था, निकाल बाहर किया और इस भूलभुलैया से बाहर आना हुआ।
मोबाइल की भूलभुलैया - सिर्फ एक मैसेज पढ़ने के लिए उठाया हुआ फोन, अपने आप घंटों तक हाथों से चिपका रहता है। फेसबुक - वाट्सएप की भूलभुलैया तो और भी खतरनाक। इससे भी खतरनाक यह कि इसमें हमें राह दिखाने गाड़ीवाले हमारे आसपास ही होते हैं, जैसे पत्नी, पति, माता, पिता, भाई, दोस्त। वे हमें टोकते हैं फिर भी हम इन बैलगाड़ीवालों पर ही गुस्सा होते हैं और वापिस इसी भूलभुलैया में फँस जाते हैं।
तीसरी भूलभुलैया है नींद या सोना - पाँच मिनट के लिए लेट जाओ तो घण्टाभर कैसे बीत जाता है, नहीं पता चलता। यहाँ भी अलार्म रूपी बैलगाड़ी है, लेकिन हम उसे आसानी से नजरअंदाज कर देते हैं और बिंदास तान कर सो जाते हैं । दोपहर की नींद का भी यही हाल है। गलती से भी बिस्तर पर पीठ टिका दी तो समझो खो गए इस भूलभुलैया में।
टीवी चैनल्स की भूलभुलैया - इसके तो क्या कहने, 150-200 से ज्यादा चैनल्स ...ये पसंद नही आ रहा तो बदल दो चैनल। यहाँ मन नहीं रम रहा तो दबाओ बटन और कूदो दूसरे चैनल पर। एक फ़िल्म कम से कम 3-4 बार तो देख ही ली जाती है और परिणाम... 3-4 घंटे भूलभुलैया के नाम स्वाहा।
Sale... एक  खतरनाक भूलभुलैया - सेल में हमारे द्वारा ऐसी-ऐसी चीजें खरीद ली जाती हैं, जिनकी जरा भी जरूरत नहीं होती। 500 रुपये की बचत के लिए हम आसानी से 4-5 हजार रुपये खर्च कर डालते हैं और ऐसी वस्तुएं खरीद लाते हैं जिनके बगैर अगले 4-5 साल हमारा कोई भी काम रुकने वाला नहीं है। लो कपड़े, लो जूते, ले लो पर्सेस, भरो बैग्स और उड़ाओ पैसे।
क्रेडिट कार्ड की भूलभुलैया -  ये तो आज की दुनिया की सबसे वाहियात भूलभुलैयाओं में से एक। सिर्फ और सिर्फ अपनी जेब से तुरंत  पैसे नहीं जा रहे इस वजह से आसानी से हम इसे इस्तेमाल कर रहे हैं। अगले महीने की पहली तारीख को उसका बिल भरते हैं और अगले माह का वेतन आने तक कैश नहीं बचता इस लिए फिर क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करते हैं। 
होटलिंग की भूलभुलैया- यह तो आजकल चक्रव्यूह है। घर खाना बनाने का आलस आये तो बाहर खाने चलो, घर के खाने से उकता गए तो बाहर खाने चलो। स्टार्टर्स अच्छे लगते हैं इसलिए बाहर खाना या वेरायटी के लिए बाहर खाना या ऐसे ही कुछ बर्गर-पिज़्ज़ा जैसे उटपटांग खाने के लिए बाहर का रुख करना। आजकल किसी को खाने पर न्योता देने पर भी उसे बाहर ले जाकर खिलाना। क्या वह स्वयं बाहर जा कर नहीं खा सकता?
कम्पीटिशन की भूलभुलैया - हर एक को दूसरे को दिखाने के लिए कुछ चाहिए। ये भूलभुलैया तो हमारी संस्कृति, मानव जाति के लिए घातक साबित हो रही है। कैसी यह जान लेने वाली स्पर्धा, वास्तव में इस मार्क्स, नम्बर्स की स्पर्धा के चलते कभी पालकों की, कभी बच्चों की या कर्ज चुकाने के चक्कर में माता पिता की जान तक जाने की नौबत आ जाती है।
व्यसनों की भूलभुलैया - किसी दोस्त के ऑफर करने पर कि एक कश या एक पेग से कुछ नहीं होता युवा सिगरेट या शराब की भूलभुलैया में कदम रख देते हैं फिर व्यसन इस हद तक बढ़ जाता है कि लगता है इसके बिना एक क्षण भी जिया नहीं जा सकता सिगरेट का व्यसन कहीं मादक पदार्थों के सेवन तक चला जाये तो जीवन और स्वास्थ्य का सत्यानाश निश्चित है 
सोचने पर पता चलता है, मेरे पिता तो उस भूलभुलैया से 3-4 घण्टों में बाहर आ गए, लेकिन हमारा क्या होगा? इन सब भूलभुलैयाओं से हम कब बाहर आएंगे? सिर्फ एक अंतर है, यहाँ बाहर का बैलगाड़ी वाला उपलब्ध नहीं है। भूलभुलैया में फँसने वाले भी हम और हमें सचेत करनेवाले भी हम ही हैं। कितने ज़ख्म खाने के बाद या कितना कुछ खो देने के बाद इससे बाहर निकलना है, ये हमे ही तय करना होगा।
(सोनाली तेलंग की पोस्ट का हिंदी अनुवाद और सम्पादन )
- विवेक भावसार 

Friday, July 12, 2019

मच्छर


मच्छर .... सभा में आते ही तालियाँ बटोरने वाला एक गायनप्रेमी कीटक।
अनेक लोग ताली बजाने के बहाने मच्छर ही को मार डालने की कोशिश में रहते हैं, लेकिन यह कीटक अत्यंत चतुर होने से लोगों के हाथ न लगते हुए सफलतापूर्वक निकल भागता है। इसे मारने के चक्कर में कई बार लोग खुद को भी थप्पड़ मार लेते हैं।
घर से बाहर इसे ठंड-गर्मी की परेशानी ना हो इसलिये लोग सोने के समय मच्छरदानी बांधते हैं। फूल रखने के लिये जिस तरह फूलदानी या इत्र रखने के लिये इत्रदानी होती है, उसी प्रकार मच्छर रखने के मच्छरदानी होती है; जिससे मच्छर अंदर आकर सुकुन से गायन-वादन का अपना कार्यक्रम करते रहें। अपना श्रोता चैन से सो जाए ये इन्हें जरा भी मंजूर नहीं होता, इसलिये थोड़ी-थोड़ी देर में काटकर मच्छर उसे जागते रहने के लिए मजबूर कर देते हैं। इनके काटने में विशेषता ये होती है कि अगर ये गालों पर काट ले तो किसी बेशरम के गालों पर भी लाली आ जाती है।
श्रोताओं को गाना दूर से सुनाई नहीं देता इसलिये ये उनके कानों के समीप आ कर गुनगुनाते हैं। श्रोताओं के लिये इतना चिंतित रहने वाला गायक शायद ही कोई दूसरा हो। मानव जाति में जो गायक हैं उनमें से कितने श्रोताओं के कानों के पास जाकर गाते है, अगर इस बात का पता लगाया जाए तो निराशा ही हाथ लगेगी।
मच्छरदानी के अतिरिक्त मनुष्य ने मच्छरों से बचाव के लिये कई तरीके इजाद किये है जैसे- मच्छररोधी क्रीम, मच्छर अगरबत्ती, स्प्रे, गुडनाईट, बेडनाईट आदि आदि। देखा गया है, जैसे आतंकवादियों को रोकने की सरकारी कोशिशों का आतंकवादियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ठीक वैसे ही इन सारी अगरबत्ती-क्रीम्स का मच्छरों के आतंक पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।
एक टीवी विज्ञापन के अनुसार इनका घर में घुसने का समय ठीक छः बजे का होता है। चूंकि मच्छरों को घड़ी देखना नहीं आता इसलिये इनके आने का समय घंटा-आधा घंटा आगे-पीछे भी हो सकता है, इसलिये समय की गैरपाबंदी के लिये मच्छरों को दोष देना उचित नहीं होगा।
डॉक्टरों की भांति मच्छरों में भी स्पेशलिस्ट होते हैं। कोई साधारण मच्छर होता है जो केवल गुनगुनाकर निकल जाता है। किसी के काटने से मलेरिया होता है तो किसी डेंगू स्पेशलिस्ट के काटने से डेंगू नामक रोग होता है। कुछ मच्छर ऐसे भी होते है जिनके काटने से चिकनगुनिया रोग होता है, जिसके बाद कोई मनुष्य ताली बजाने लायक भी नहीं रह पाता।
डेंगू, मलेरिया उन्मूलन मुहिम में सरकार ने करोड़ों की संख्या में मच्छरों को नष्ट किया है। बीते पांच साल में कितने मच्छर सरकार द्वारा मारे गये हैं इसके आंकड़े पंचवार्षिक योजना के वार्षिक प्रतिवेदन में पढ़ने के लिये मिल सकते है या सूचना के अधिकार के जरिये भी प्राप्त किए जा सकते हैं। कहा जाता है कि यह आंकड़े सरकारी होते हुए भी सत्य हैं।
गहन अध्ययन एवं शोध का विषय है कि ये मच्छर पूर्वजन्म के आतंकवादी थे या आतंकवादी अपने पूर्वजन्म में मच्छर थे। दोनों ही संभावनाओं से इन्कार नहीं किया जा सकता। इन दोनों के बीच की कई बातों में समानता इस शंका को पुष्टि देती है।
देखिए उदाहरण -
➣ जिस प्रकार एक मच्छर पूरे बंदोबस्त के बावजूद मच्छरदानी में या घर के भीतर कोई सूराख ढूंढकर किसी तरह दाखिल हो ही जाता है, एक आतंकवादी भी देश की सीमाओं में से सूराख ढूंढकर देश में घुस ही जाते हैं।
➣ जिस तरह मच्छर एक अकेला नहीं आता उसी तरह आतंकवादी भी समूह में घुसने के प्रयास में रहते हैं।
➣ एक आतंकवादी किसी देश में लोगों के बीच छुपा रहता है और अवसर आने पर अपना काम कर जाता है ठीक उसी प्रकार मच्छर दिन भर घरों-कमरों के कोनों में छुपे रहते हैं और शाम होते ही अपने मिशन पर निकल आते हैं ।
➣ एक आतंकवादी लोगों के खून का उतना ही प्यासा होता है जितना की एक मच्छर। ये दोनों ही लोगों के खून के लिए अपनी जी जान लड़ा देते हैं, चाहे उसमें उनको अपनी खुद की जान ही क्यूं न गवानी पड़ जाए।
➣ मच्छरों की तरह एक आतंकवादी लोगों की अमन, चैन, शांति का दुश्मन होता है । आप शांतिपूर्वक कहीं बैठे हो, ये इनको नहीं सुहाता और ये आपकी शांति भंग करने पहुँच ही जाते हैं ।
➣ दोनों के शिकार मासूम और निहत्थे लोग ही होते हैं ।
➣ ये भी होता है कि गाल पर बैठे मच्छर को मारने के लिए स्वयं को ही चाटा खाना पड़ता हो उसी प्रकार देश में छुपे किसी आतंकवादी को पकड़ने में किन्हीं निरपराध लोगों को भी बली चढ़ जाती है ।
➣ जिस प्रकार एक मच्छर पकड़ में आने पर कोई उसे जिंदा नहीं छोड़ना चाहता, यही गत आतंकवादियों की भी होती है । कोई नहीं चाहता कि शांति और अमन के दुश्मन आतंकवादी को जिंदा छोड़ दिया जाए, बल्कि मच्छरों की तरह इन्हें भी मसल कर रख दिया जाए।

- व्याख्यानंद (विवेक भावसार)

Friday, July 5, 2019

आधुनिक मेघदूत (मराठी)




धोकादायक सूचना - खाली लिहिलेल्या कथेतली नावे, स्थळे, शीर्षक अथवा घटना इतर कोणत्याही गोष्टीशी जुळत असतील तर तो निव्वळ योगायोग नाही, फार प्रयत्नपूर्वक तसे केलेले आहे.

आधुनिक मेघदूत 


ही गोष्ट मला माझा मित्र (खालच्या मजल्यावर राहणारा म्हणून ) खालीदास याने खाली (रिकाम्या) वेळेत सांगितलेली आहे. ती मी जशीच्या तशी तुम्हाला सांगायचा प्रयत्न करीत आहे.

आपल्या या कथेचा नायक आहे सेल्स एक्ज्यूकेटिव म्हणून कुबेर फायनांस कंपनीत नोकरी करत असलेला एक तरुण युवक "दक्ष"कुमार. दक्ष कुमार आपल्या कंपनीच्या मालकांचा आवडता कर्मचारी. आणि हा 
दक्षही मोठ्या इमाने इतबारे कंपनीच्या सेवेत झटत असे. अशातच दक्ष कुमारचे लग्न झाले. चांगल्या कंपनीत छानश्या हुद्यावर असल्याने बायकोही त्याला अति सुंदर व प्रेमळ अशी मिळाली. नवे नवे लग्न झालेले होते. नव्या नव्या नवरा-बायकोचे प्रेम नको इतके उतू जात असतेच. त्या परंपरेनुसार दक्षसुद्धा बायकोचे लाड पुरवण्यात गुंग असायचा. रोज रोज हॉटेलात जेवू घालणे, दर आठवड्याला एखाद्या मॉलमध्ये फेरफटका, शॉपिंग व नंतर सिनेमा पाहणे असा त्यांचा प्रेमळ नित्यक्रम चाललेला होता. 

दक्ष आपल्या नव्या बायकोच्या इतक्या प्रेमात पडलेला होता की कंपनीच्या कामाचाही त्याला कधी कधी विसर पडू लागायचा. अशाच एके दिवशी आफिसात एक फार आवश्यक अशी सेल्सच्या स्टाफची मीटिंग होती. आणि त्या मीटिंगला नेमका दक्ष हजर नव्हता शिवाय एक अर्जंट फाईलही त्याने आफिसात आणून दिलेली नव्हती. आफिसतर्फे त्याच्या मोबाईलवर फोन करून विचारणा झाली तेव्हां तो बायको सोबत शॉपिंगसाठी बाजारात असल्याचे कळाले. कंपनीचे मालक श्रीयुत कुबेर ह्यांना ही बातमी समजली. ते फारच नाराज झाले. ताबडतोब त्यांनी दक्ष यास हजर राहण्याचे फर्मान काढले. त्यानुसार दक्ष तातडीने आफिसमध्ये मालकांच्या समोर हजर झाला.

अत्यंत महत्वाची मीटींग सोडून बायकोसोबत शॉपिंग करत फिरत असल्याने कुबेर सर त्याच्यावर भयंकर संतप्त झाले होते. आणि त्यासाठी शिक्षा म्हणून तडकाफडकी त्याची बदली लांबच्या प्रदेशातल्या रामटेकनगर या गावी केली. तेथे त्याला एकटेच जावे लागणार होते. तेथे टारगेट पूर्ण होईस्तोवर त्याच्या बायकोपासून लांब रहावे लागणार होते. मोठ्या दुःखी मनाने तो तेथून घरी परतला. अत्यंत जड अंतःकरणाने ही बातमी त्याने बायकोच्या कानावर घातली. बातमी ऐकून बायकोसुद्धा विरहाच्या विचाराने मोठी कष्टी झाली. 

गावी जायची तयारी करुन झाली. "रोज सकाळ-संध्याकाळ मोबाईल, व्हॉट्स एपवर आपण बोलत जाऊ, तेव्हढीच विरहाची व्यथा कमी होईल ' अशी तिची समजूत घालून दक्षने बायकोचा निरोप घेतला आणि जायला निघाला. रामटेकनगरला पोचल्यावर त्याने पहिले छूट बायकोला पोचल्याचा फोन केला.

धीरे धीरे तो आफिसच्या कामात रुळू लागला. बायकोबरोबर रोज सकाळ -संध्याकाळ फोनवर बोलणेही चालुच होते. नुसते बोलून काय होते ?  बायकोचा विरह त्याच्या मनात सारखा सलत होता. अचानक एक दिवशी बायकोचा मोबाईल लागेना असे त्यास समजून आले. दक्षाने बराच वेळ प्रयत्न करुन पाहिला पण साफल्य काही तयाच्या हाती लागले नाही. दुसरे दिवशीही तोच प्रकार घडला. दक्ष प्रयत्न करून करून थकला पण त्याला काही यश लाभले नाही. कदाचित तिच्या मोबाईलचा बॅलेंस संपलेला असेल किंवा बॅटरी डिस्चार्ज झालेली असणार म्हणून त्याने मनाची बरीच समजूत काढली पण त्या दिवसानंतर कधीच त्याचे बायकोशी बोलणे झाले नाही, इतके मात्र खरे.

बायकोच्या विरहाने आपला दक्ष खुपच झुरत चालला होता. तिच्याशी सकाळ -संध्याकाळ मोबाईलवर होणारे बोलणेही खुंटले होते. दक्षाचे कामात लक्ष लागेना, जेवणात लक्ष लागेना. त्याचे कशातही लक्ष लागेना. त्याचे सहकारीही "दक्ष का नही काम में लक्ष' असं म्हणून चिडवू लागले. दक्ष मनाने आणि शरीराने खंगू लागला. फारच विचित्र अवस्था झाली. त्याचे कपडे त्यास सैल होवू लागले. पँट तर कंबरेत इतकी सैल झाली की आपोआप खाली गळून पडत असे, शेवटी त्याला कंबरेच्या पट्ट्यात एक्स्ट्रा भोकं मारून पट्टा आवळण्याची व्यवस्था करावी लागली.

करता करता पावसाळा जवळ आला. आकाशात काळे काळे ढग धावू लागले. लग्नानंतरचा पहिला पावसाळा. दक्ष बायकोच्या विरहाने अत्यंत व्याकुळ झाला. तिच्याशी नुसते बोलायचे म्हटले तर तो ही मार्ग खुंटला होता. आषाढाचा पहिला दिवस उगवला. बायकोला संदेश कसा पाठवावा याचा विचार करता करता त्याला एक मार्ग सुचला. त्याने कागदावर एक मोठे प्रेमपत्र लिहून काढले. आणि ते पत्र एका पाकिटात घालुन त्यावर आपल्या घरचा म्हणजे "प्रेमसदन", 63, अलकापुरी कॉलनीचा व पाठविणारा (स्वतः)चा पत्ता व मोबाईल नं सकट "VERY ARGENT " लिहून ते पाकिट त्वरित रवाना व्हावे म्हणून ‘गगन' कोरियरला नेऊन दिले. कोरियर कंपनीनेही ते पत्र तातडी पाहून लगेच पहिल्या डाकेने रवाना केले .

पत्र लवकरच दक्षाच्या गृहनगरातल्या कोरियर कंपनीच्या शाखेत येऊन पडले. पत्र दिलेल्या पत्यावर नेऊन देण्याची जवाबदारी "मेघकुमार' या कोरियरबॉय वर आली. मेघकुमार त्या भागातल्या बाकीच्या पत्रांसोबत दक्षाचेही पत्र घेऊन त्याच्या घरी देण्यास निघाला. त्या भागात मेघाचे फारसे येणे जाणे नसल्याने त्याला दक्षाच्या घरचा पत्ता सापडला नाही, म्हणून घरापर्यंत जायचा मार्ग नीट समजून घ्यावा या उद्देशाने त्याने पत्र पाठविणाऱ्याला अर्थात् दक्षाच्या मोबाईलवर फोन लावला. दक्षाने विचारताच त्याने आपला परिचय दिला व घरचा पत्ता शोधण्यास येत असलेली अडचण सांगितली व पत्ता नीट समजावून सांगण्याची विनंती केली.

तेव्हां दक्ष त्यालाम्हणाला - हे मेघ, तुझ्यावर ही फार महत्वाची कामगिरी मी सोपविली आहे. तुझ्या हातात असलेले पत्र हे मी माझ्या प्रिय पत्नीला लिहिले आहे. तू लवकरात लवकर हे पत्र तिच्या हातात पडेल असा प्रयत्न कर. कारण ती माझ्या विरहात दु:खी होवून तळमळत असेल. तिला माझी खुशाली लवकर समजली तर तिला बरे वाटेल. हे मित्रा तू सध्या कुठे उभा आहेस?

तेव्हां मेघकुमारने उत्तर दिले - ''हे दक्षा, मी सध्या प्रत्येक शहरात हटकून असणाऱ्या महात्मा गांधी रोड नामक रस्त्यावरच्या शिवाजी पुतळ्याच्या चौकात उभा आहे. कृपया मला मार्गदर्शन करावे.''

दक्षाने त्याला रस्ता समजाविण्याच्या उद्देशाने पुढील कथन केले - ''मित्र मेघा, तू अगदी योग्य अशा ठिकाणी उभा आहेस, येथून तुला पत्ता शोधण्यास मुळीच श्रम पडणार नाहीत. केवळ माझ्या निर्देशांचे पालन कर.''

दक्ष पुढे म्हणाला,

''हे मेघदूता, तू शिवाजी महाराजांच्या मुखाच्या दिशेने मुख्य रस्त्यावर सरळ चालु लाग. सरळ पुढे चालता चालता तुला डाव्या हाताला तिसऱ्या गल्लीच्या कोपऱ्यावर मिल्क पार्लर नावाची एक टपरी दिसेल. तेथे दूध सोडून इतर सर्व पदार्थ ब्रेड, बिस्किट, अंडी, फरसाण, सिगारेट, चॉकलेट्स, गुटखा, बेक्ड सामोसा इत्यादी हारीने मांडून ठेवलेली दिसतील. पण मित्रा तू त्यांच्याकडे मुळीच लक्ष देऊ नको. तू ती गल्ली सोडून चवथ्या क्रमांकाच्या गल्लीत शिर. त्या गल्लीत शिरल्यानंतर तू तसाच पुढे चालु लाग. बरेच पुढे गेल्यावर तुला तेथे रस्त्यावर नगरपालिकेने पाईप दुरुस्तीसाठी खणलेला एक मोठा खड्डा आढळेल. मला खात्री आहे कि सहा महिन्यांपूर्वी खणलेला तो खड्डा अजून नगर पालिकेने बुजवलेला नसणार. मित्रा तू त्या खड्यात मुळीच उतरु नको, कदाचित त्यात आतापर्यंत बराच चिखलही साचलेला असणार. तू तो खड्डा ओलांडून पुढे जा. "

थोडे थांबुन दक्ष परत म्हणाला,

"पुढे गेल्यावर उजव्या बाजूच्या कोपऱ्यावर एक रिकामा प्लॉट दिसेल. त्यात आजूबाजूच्या लोकांनी टाकलेला कचऱ्याचा साचलेला भलामोठा ढीग दिसेल व त्याची भयानक दुर्गंधीही सुटलेली असेल. तेव्हां तू असं कर मित्रा, ताबडतोब आपल्या खिशातला रुमाल काढून लगेच नाकावर धर आणि तो कचऱ्याचा डोंगर डावलुन उजव्या दिशेला प्रयाण कर. उजव्या दिशेने पन्नास कदम पुढे गेल्यावर एक रुंद रस्ता दिसेल. त्या रस्त्याच्या डाव्या हाताला "अवंतिका' कन्या महाविद्यालयाची महालासदृष्य भव्य इमारत दिसेल. मित्रा जर तू सकाळी दहाच्या सुमारास किवा दुपारी तीन वाजेच्या जवळपास तेथून जात असशील तर अनेक सुंदर, सुकुमार कुमारिकांचा ताफा त्या रस्त्यावरुन लचकत, मुरडत चालत असलेला दिसेल. अर्थात त्या घोळक्यामागे नवतरुणांची एखादी टोळीही मुखाने शीळ घालत किंवा शब्दबाणांनी छेडत त्यांचे अनुसरण करतांना आढळेल. मित्रा, तू दोन घटका रस्त्याच्या कडेला उभा राहून परत परत स्मितपूर्वक मागे वळून पाहून त्या तरुणांना उत्तेजन देणाऱ्या कमनीय तरुणींचे दर्शन कर. जमलं तर एखादी शीळ तूही घाल. थोडा विसावा घे आणि पुढे निघ.

चालता चालता तुझा कंठ शुष्क झाला असणारच. महाविद्यालयाच्या पुढच्या कोपऱ्यावरच एक पाणपोई आहे. तू तेथे थांबून आपली तृष्णा शांत कर. जवळच असलेल्या हिमालय हॉटेलात मिळणारे अमृततुल्य चहापेय घ्यायला तुला नक्कीच आवडेल. चहापानानंतर मित्रा तू ताजातवाना होऊन पुढचा मार्ग आक्रमु लाग. त्याच दिशेने पुढे पुढे वळण न घेता तू चालु लाग. लगेच तुला एक मोठे मैदान आढळून येईल. पूर्ण मैदानभर उकीरड्याच्या ढिगाऱ्यामधून विचरण करणारे वराह अर्थात डुकरांचे कळपच्या कळप तुला दिसून येतील . मैदानातल्या खोल जागेत पाणी किंवा चिखल साचलेला असेल तर त्यात डुंबत आनंदाचा आस्वाद घेणाऱ्या म्हशीं आणि त्यांच्या मागे पुढे फिरणाऱ्या शुभ्र धवल बगळे आणि काळे कुळकुळीत कावळे नामक पक्षीकुलाचे दर्शन घेण्याचे भाग्यही तुला लाभेल.''

दक्ष पुढे सांगत राहिला,

''हे मेघदूता, मैदान मागे टाकून तू किंचित पुढे आल्यास एक मोठा चढ दिसेल. त्या टेकडीवर चढून आल्यावर तुला थंड हवेची एखादी झुळुक येवून आदळेल. तर मित्रा तू मुळीच घाबरुन जाऊ नकोस. कारण अलकापुरी कॉलनीच्या अगदी जवळ तू येऊन ठेपला आहेस. चढ संपताच डाव्या बाजूस कॉलनीचे प्रवेश द्वार आहे व तेथेच अलकापुरीचा नामदर्शक फलक उभारलेला आहे. त्या प्रवेशद्वारातून आत शिरल्यावर रस्त्यात उभ्या असलेल्या गाई, म्हशींना चुकवत मित्रा, तू सहाव्या क्रमांकाच्या गल्लीच्या कोपऱ्यावर जा. तेथे एक नगर पालिकेने ठेवलेली कचरापेटी दृष्टीपथात येईल. सगळा कचरा त्या पेटीच्या आत असण्याऐवजी चारीबाजूला विखुरलेला आढळून येईल. तेथे बसून कचरा विचकणाऱ्या कुत्र्यां, डुकरांपासून अत्यंत हुशारीने आपला बचाव करत तू गल्लीत प्रवेश कर.
गल्लीत पुढे आल्यावर कैलासपति श्रीशंकराचे एक देऊळ तुला दिसेल. तू देवळात जाऊन श्रीशंकराचे दर्शन घे.

भगवान महादेवाचे दर्शन घेऊन बाहेर आल्यावर समोरच 63 क्रमांकाचे प्रेमसदन नावाचे माझे घर आहे. तू तेथे परिसराचे द्वार ओलांडून प्रवेश कर, पण एकदम द्वारघंटिका वाजवू नकोस. कदाचित् माझी प्रिय पत्नी निद्रावस्थेत असेल. कदाचित् ती माझ्या स्वप्नरंजनामध्ये गुंग असेल. द्वारघंटिकेच्या ध्वनिने तिच्या स्वप्नांत व्यवधान पडेल. तू हळूच बाजूच्या गवाक्षातून वाकून पहा. जर माझी प्रिया जागी नसेल तर तिच्यावर तेथुनच बाटलीतले पाणी घेऊन हलक्या हाताने शिडकाव कर. ती निद्रावस्थेतून बाहेर आल्यावर मित्रा तू माझे हे पत्र तिच्या स्वाधीन कर आणि मग वाटल्यास तुझी बाकीची पत्रे वाटायला खुशाल जा.''

पथप्रदर्शनानन्द !
(विवेक भावसार)

Tuesday, July 2, 2019

"झोप" ... एक गंभीर चिंतन


झोप .... रात्री गादीवर उताणे पडल्यावर थोड्या वेळाने शुद्ध हरपण्याची अवस्था.
एकदा का झोप लागली, कि माणसाला कशाचीच शुद्ध रहात नाही. तो घोरतोय का तोंड उघडे पडलेले आहे, आसपास गोंगाट होत आहे का टीवी-रेडियो चालू आहे, पांघरूण अंगावरून घसरलेले आहे कि स्वतः झोपणाराच गादीवरून घसरलेला आहे का अंथरूणात उलथा पालथा झालेला आहे, स्वतः गादीवर आहे कि गादीखाली गेलेला आहे, कशाचीच म्हणजे... कशाचीच शुद्ध रहात नाही.
झोप येण्याची प्रमुख जागा म्हणजे घर. पण ही घराशिवाय इतर ठिकाणीही प्रामुख्याने सापडते. त्यात पहिला नंबर म्हणजे कचेरी. त्यानंतर शाळा-कॉलेजचा वर्ग, सार्वजनिक सभेच्या सभासदांची मीटिंग, जाहीर सभा-व्याख्यान, शास्त्रीय संगीताचे कार्यक्रम, धार्मिक प्रवचनांचे मंडप आणि सर्वात महत्वपूर्ण ठिकाण - संसद सभा भवन. या सर्व ठिकाणी झोप घेणारे किंवा आवरता न आल्याने झोप येणारे हमखास दिसतात.
कचेरीत जेवण्याच्या सुटीत, खुर्चीच्या दोन्हीं हातांवर आपले पाय फाकवून बरेच महाभाग पडलेले दिसतात. डोक्यावर पंखा किंवा बाजूने कूलर चालू असल्याने, यांना झोपेचा अवर्णनीय आनंद लुटता येतो. पण झोपल्यानंतर कसलीच शुद्ध रहात नसल्याने यांची झोप मस्त चहाच्या सुटीपर्यंत लांबते. अर्थात अशा प्रदीर्घ झोपे नंतर चहा घेणे सहाजिकच असते.
शाळा-कॉलेजात वर्गात शिक्षक रसायन शास्त्र, इंग्रजी किंवा इतिहासासारखा कंटाळवाणा विषय शिकवत असतांना तुम्हाला वर्गात झोप अनावर झाल्याचा अनुभव नक्कीच आला असेल. पहिला बाजीराव, दुसरा बाजीराव, पानीपतची लढाई, शेवटली लढाई, अमुक खान, तमुक खान, जन्म-मृत्युच्या सनावळ्या ही सर्व आकडेवारी ऐकता ऐकता कोण असा वीर असेल ज्याला झोप नाही येणार. अभ्यासाच्या बाबतीत घडणारा झोपेचा असाच दुसरा खास प्रसंग म्हणजे, परीक्षा डोक्यावर आली असतांना अभ्यासाला बसणे. आणि अशा वेळी पुस्तक उघडल्याबरोबर डोळ्यांवर अशी काही पेंग चढते कि विचारू नका. तेव्हां पुस्तक बाजूला ठेवून पहाटे लौकर उठून अभ्यासाला बसायचा निश्चय होतो, आणि हा निश्चय कधीच तडीला जात नाही, हे काही वेगळे सांगायला नको.
सार्वजनिक सभेच्या सदस्यांच्या मीटिंग प्रसंगी, किंवा जाहीर सभेत असेच दृष्य नजरेत पडते. यात बोलणारा वक्ता सोडून, मंचावर उपस्थित सदस्य व समोर बसलेले श्रोते, सारे झोपेत असतात. त्यामुळे वक्त्याला अडथळा, व्यवधान न येता लांबलचक भाषण करण्याचे समाधान मिळते. बऱ्याच सभेचे अध्यक्ष झोपेत असूनही किंचित डोळे उघडून लक्षपूर्वक भाषण ऐकण्याचा बेमालूम अभिनय करण्यात पटाईत झालेले आहेत. अशावेळी पेंगतांना डोके किंचित मागेपुढे डोलत असल्याने लक्षपूर्वक ऐकण्याच्या त्यांच्या अभिनयात भारीच भर पडते. तसेच धार्मिक बाबांच्या प्रवचनात सुद्धा झोपणारे आढळतात. रसाळपणा ऐवजी रटाळपणा सुरू झाला कि लोकांना झोप येणारच.
भारतातले झोपण्याचे सर्वात महत्वपूर्ण ठिकाण म्हणजे लोकसभा-राज्यसभेचे वातानुकूलित सभागृह. इथे बसून झोप घेणाऱ्या खासदारांना आपोआप टीव्हीवर दिसण्याची संधी मिळते...मग असे खासदार रातोरात प्रसिद्धिच्या झोतात येतात... आणि मग त्यांच्या निवडणूक क्षेत्रांतील लोकांना आपला खासदार टीव्ही वर का होईना... निवडणूकीनंतर पहिल्यांदा दृष्टिस पडला याचा अपूर्व आनंद होतो. आपले एक पूर्व पंतप्रधानसुद्धा लोकसभेत झोपण्याच्या कलेत निष्णात झालेले होते. सभागृहात गदारोळ उठला की मात्र अशा लोकांची झोपमोड होते व उठताच गडबडीने ‘जिंदाबाद, मुर्दाबाद, नहीं चलेगी नहीं चलेगी‘ अश्या निरर्थक किंवा विषयाशी असम्बद्ध आरोळ्या देत सुटतात.
एक सभा आणखी, जिथे झोप आवरणे अशक्य होते. ती म्हणजे शास्त्रीय संगीताची सभा. तुम्हाला आवड नसतांनाही, तुमच्या मित्राच्या आग्रहाखातर, तुम्ही तेथे हजेरी लावलेली असते. एक तर या सभा रात्रीच्या असतात, व कधी वेळेवर सुरू होत नाहीत. म्हणजे झोपेची प्राथमिक भूमिका सभा सुरु होण्याअगोदरच तयार झालेली असते. मग कधीतरी साथ संगतकार येऊन बसतात व तंबोरा, तबला तालासुरात जुळवित बसतात आणि आपली निद्रेला थोपवण्याची निष्फळ आराधना सुरु होते. एवढ सगळं झालं की मुख्य गायक येतात आणि गायन आरंभ करत हळू हळू आलाप आळवायला सुरवात करतात. जरा गळा गरम झाला, की पुढच्या ताना सुरू होतात. अशात, त्यातले काहीच न कळणारे आमच्यासारखे माना डोलावून डुलक्या मारू लागतात. या डुलक्यांना आपल्या कलेला मिळणारी दाद समजून हे गायक अजून चवताळतात व ताना मुरक्या दहा दहादा आळवून म्हणत राहतात. पण तोपर्यंत इकडे अशी मस्त समाधि लागलेली असते कि काय म्हणता. म्हणून गायन संपवतांना शेवटली तान जोरात तीनदा मारावी, अशा झोपाळू लोकांना जागे करण्यासाठीच शोधून काढलेली कोण्या एखाद्या कल्पक गायकाची युक्ति असावी... नक्कीच !
किशोरवयात कथा कादम्बऱ्या वाचतांना, अनेकदा असे आढळत असे कि नायक किंवा नायिका झोप न आल्यास, निद्रादेवीची आराधना या गोड प्रकारात लागत असे. मलाही एकदा रात्री झोप येत नव्हती, तेव्हा मी सुद्धा हा प्रयोग करायचा ठरविला. पण पुस्तकात अशी आराधना कशी करावी, याचा काहींच तपशील दिलेला नव्हता. मग मी स्वतःच एक पद्धत ठरवली. मी देवघरातून आरतीचे ताट आणून त्यात एक निरांजन पेटवून गादीत येवून बसलो. पुस्तकात निद्रादेवीच्या आराधनेचा कोणता मंत्र देखिल दिलेला नव्हता. मग मी स्वतःच एक मंत्र तयार केला व आरतीचे ताट ‘ओम् निद्रादेवी शिघ्रम् शिघ्रम आवन्तू’ असे म्हणत पंचवीस-तीस वेळा हवेत ओवाळले. परंतु मला बघण्याची उत्सुकता असलेली ती रूपसुंदर निद्रादेवी येण्याचे काही चिन्ह दिसेना. एवढ्याने कंटाळून मला झोप येवू लागली, पण निद्रादेवी नाही आली ती नाहीच. पण काही वेळाने निरांजन लवंडण्यामुळे, गादी पेटून निघाली व चटका बसून माझी झोप मात्र परत उडाली.
बऱ्याच लोकांना झोप न येण्याचा विकार असतो. असे लोग रात्रभर जागत विचार करत बसतात, व झोप येण्यासाठी अनेक उपाय करत असतात. अशा लोकांना सल्ले देणारेही बरेच भेटतात. कोणाचा सल्ला असतो, अंथरूणावर पडल्यावर डोळे मिटून, काल्पनिक मेंढ्या मोजत बसाव्या. किंवा ओमचा जप करावा. तर कोणी सल्ला देतो, झोपण्यापूर्वी स्नान करून शतपावली करावी. तर कोणी यासाठी डॉक्टरांकडे झोपेच्या गोळया लिहून देण्यासाठी धाव घेतो. हल्लीच्या मुलांना इंटरनेटमुळे झोप येत नाही. रात्रभर मित्रांशी फेसबुक-व्हाट्स एप संवाद चालू असतो. मात्र या मुलांच्या झोपेच्या वेळा फक्त बदललेल्या असतात. सामान्य लोकांसारखी ही मुलं सकाळी न उठता दुपारी झोपून उठतात...इतकेच. जी मुलं वेळेवर झोपतात व उठतात, त्यांच्याकडे इंटरनेट कनेक्शन नाही हे समजायला हरकत नाही.
मला मात्र झोप येण्यासाठी एक जालिम उपाय सापडला आहे. मला झोप येत नाही, असा प्रसंग क्वचितच येतो. पण जेव्हां ही येतो त्या वेळी, मी एक जाडजूड ऐतिहासिक कादंबरीचे पहिले पान काढून सुरवातीपासून वाचायला सुरवात करतो. आणि पहिले किंवा दुसरे पान संपता संपता, मी गाढ झोपेत चालला जातो. पंधरा वर्षांपूर्वी घेतलेल्या, या पांचशे पानाच्या कादंबरीची, आतापर्यंत फक्त तीनच पाने मी वाचू शकलो आहे, या वरूनच समजेल की हा उपाय किती रामबाण आहे. माझ्या दिवाणखान्यातल्या कपाटातली जाडजूड पुस्तके पाहून, लोक माझ्या अभ्यासू वृत्तिचे उगीचच कौतुक करतात, पण ती सर्व पुस्तके केवळ झोपेच्या रामबाण गोळया आहेत, हे गुपित मी अजूनपर्यंत लपवून ठेवलेले आहे.
बऱ्याच लोकांना सवय असते, की झोपतांना ज्या स्थितित ते अंथरूणात शिरतात, उठतांना वेगळयाच मुद्रेत आढळतात. असे लोक अगदी मोकळेपणाने झोपतात. झोपेत पाय हात चौफेर फिरवत असतात. शेजारी झोपलेल्या माणसाची गादीही आपलीच आहे असे समजून, झोपेत तिथे आपल्या तंगड्यांनी सर्जिकल स्ट्राईक करून परत येतात. सकाळी उठतांना पायाच्या जागी डोके व उशीवर पाय पसरलेले असतात. झोपतांना पाठ गादीवर टेकलेली असते ती सकाळी उठतांना आकाशाकडे असते. या उलट काही लोक ज्या मुद्रेत झोपायला जातात, अगदी तसेच सकाळी उठतात. अंथरूणाची एक सुरकुती इकडे का तिकडे नाही. फारतर पांघरूण इंच दोन इंच खाली वर सरकलेले. जसा काही मुडदाच रात्रभर गादीवर पडला असावा. असे लोक रेलवेच्या बर्थवर किंवा इस्पितळातल्या स्ट्रेचरवर झोपायच्या एकदम लायकीचे. मलाही माझ्या अशा झोपण्याच्या सवयीचा फार राग येतो. छट् ! असे काय झोपायचे मुडद्यासारखे. झोपावे तर मोकळेपणाने हात पाय पसरून, नाही तर काय ? शेजारी झोपणाऱ्याला रात्री जरा लत्ताप्रसाद द्यावा, कधी त्यांचे पांघरूण आपल्यावर ओढून घ्यावे, तर कधी त्याला अंथरूणावरून बाहेर ढकलून द्यावे, तरच काही मजा!
वैज्ञानिक सुद्धा सांगतात, कि झोप ही माणसाच्या आरोग्यासाठी अत्यंत महत्वाची गोष्ट आहे. परंतु वाटते कि शाळावाले आणि ऑफिसातल्या बॉस लोकांचा यावर अजून विश्वास बसलेला नाही.
झोपेचा एक महत्वाचा भाग, तो म्हणजे स्वप्न. तुम्हाला स्वप्न पडते म्हणजेच झोप येते. झोप नसेल तर स्वप्न कसे पडेल? मात्र जाग आल्यानंतर झोपेत पडलेल्या स्वप्नांचा जराही तपशील आठवत नाही, हा भाग अलहिदा. पण काही काही वेळा स्वप्न लक्षात रहातं. जसे ‘रात्रभर मला एक क्षण ही झोप आली नाही’ असे स्वप्न कालंच मला पडलं. ‘रात्र रात्र जागून अभ्यास करतोय’ असंही एक आवडतं स्वप्न शाळेत शिकत असतांना मला दररोज पडत असे. तुमचं स्वप्न भंग होवू नये, असं जर तुम्हाला वाटत असेल एक खबरदारी अवश्य घ्यावी. झोपतांना, घड्याळाचा गजर लावू नये. अशाने मोठी व लांबलचक स्वप्नं बघण्यात अडथळे येत नाही. ‘स्वप्नं नेहमी मोठी असावीत’ असं आपले पूर्व राष्ट्रपती श्री अब्दुल कलाम म्हणून गेले आहेत. आणि ‘मोठी स्वप्नं पहायची असतील तर उशीरापर्यंत झोपून रहावे’ असे मी म्हणून गेलो आहे. तसे पाहिले तर मला स्वतःला घरातले कोणी उशीरापर्यंत झोपलेलं अजिबात बघवत नाही, म्हणूनच मी सर्वात उशीरा झोपून उठतो.
घोरणे हा झोपेचा अजून एक अविभाज्य घटक आहे. कारण न झोपता कोणालाही घोरता येणे अशक्यच. स्वतः झोपणाऱ्याला सोडून इतरांनाच हा घोरण्याचा त्रास असतो. त्यामुळे घोरणाऱ्याच्या शेजारी झोपणे इतरांना शिक्षाच वाटते. गंमत म्हणजे घोरणाराला कधीच खरं वाटत नाही कि तो झोपतांना घोरतो. झोपणारा घोरतोय म्हणजे तो अगदी ‘बिनघोर’ झोपला आहे असे समजावे. मी झोपेत फार घोरतो अशी बायकोची तक्रार आहे, पण ऑफिसात आजपर्यंत याबद्दल मला कधीही कोणी तक्रार केली नाही. मी रात्री मस्त झोपतो आणि तिला सारी रात्र झोप लागत नाही याकरताच हा द्वेषपूर्ण आरोप ती माझ्याविरूद्ध करते...झाले.
फार क्वचितच कोणाला स्वतःच्या घोरण्याचा त्रास होतो. एखादे वेळी तो स्वतःच्याच घोरण्याने दचकुन उठतो. मलाही एकदा असा त्रास सुरू झाला. मी डॉक्टरला माझी समस्या सांगितली कि, ‘खोलीत स्वतःच्याच घोरण्याच्या आवाजामुळे माझी झोप उडते, मग परत मला झोप लागत नाही, यावर उपाय काय?’ तेव्हा आमचे डॉक्टर लगेच उत्तरले- ‘अशा वेळी दुसऱ्या‍ खोलीत झोपायला निघून जात जा.’
घोरण्यासारखा झोपेचा आणखी एक शत्रु म्हणजे सकाळी ठराविक वेळेपुरते येणारे नळ. पाण्याचे नळ येण्याची वेळ नेमकी नगरपालिकेने भल्या पहाटेचीच का ठरवलेली असते, कोणास ठाऊक ? म्हणजे पहाटे नळ येणार या काळजीने रात्रभर जागत रहा आणि नेमके नळ यायच्या वेळेला डुलकी लागायची....आणि तिकडे नळाची वेळ संपली की खडबडून जाग यायची. दुसरा झोपेचा शत्रु म्हणजे रात्रपाळीचा वॉचमन. आपल्याला झोप लागली रे लागली की हा दारापुढून शिट्या वाजवत फेरी मारायला निघणार आणि वरून आम्हालाच ओरडणार-‘जागते रहो‘. अरे जर आम्हालाच 'जागते' रहायचे आहे तर तुला नोकरीवर कशाला कोण ठेवेल. पण ही ललकारी आपल्याला दिलेली असते, कि वॉचमनने स्वतःला जागे राहण्यासाठी, कि चोरांना जागते रहा असा इशारा देण्यासाठी दिलेली असते यावर संशोधन करून एखाद्याला डॉक्टरेटही मिळवता येईल. मला वाटते हे वॉचमन लोकं ‘मी ड्युटीवर आलो आहे’ हे पटवून द्यायला ही आरोळी मारत असणार.
वॉचमन नंतर नंबर लागतो तो पेपरवाला आणि दूधवाला. या दोघांची अगदी शर्यत लागलेली असते कि कोण तुमची झोप आधी उडवतो ते. तुम्ही सकाळच्या साखरझोपेत एखादे मस्त स्वप्न बघत पडलेले असता आणि दारावर धपकन् एक आवाज उमटतो आणि तुमच्या झोपेचे खोबरे होते. तो असतो वर्तमानपत्रवाल्याचा प्रताप. पेपरवाला नसला तर दाराची बेल वाजते आणि दूऽऽऽऽध अशी आरोळी येते. मग तुम्हाला आधी आळस आणि नंतर पांघरूण झटकून उठावेच लागते.
म्हणतात, आळस हा माणसाचा शत्रु आहे. असेही म्हणतात, कि शत्रुलाही मित्र करून घेण्यात माणसाचे खरे कौशल्य आहे. तर मग चला, आजपासून आळसाला आपण मित्र करून घेऊ या. कारण आळस हा झोपेचा पक्का मित्र आहे. आळस आला कि झोपही त्याच्यामागे येणारच. त्यामुळे झोपेबरोबर आपली मैत्री अजून प्रगाढ होण्यास मदत होईल.
इतकं सर्व लिहीतांना मलाही झोप आवरता येत नाहीये आणि वाचतांना तुमची ही छान झोप झाली असणार, अशी आशा करतो.
- निद्रानंद
(विवेक भावसार)

Monday, July 1, 2019

आधुनिक मेघदूतम्


यह कथा मैंने मेरे मित्र खालीदास से खाली समय में सुनी है । उसे मैं जस की तस आपको सुनाने का प्रयास करता हूँ । 

इस कथा का नायक है इन्द्रनगर नामक नगर की कुबेर फायनेंस कंपनी में सेल्स एक्जीक्यूटिव के पद पर काम कर रहा एक बांका नौजवान दक्षकुमार । दक्षकुमार अपनी कंपनी के निदेशक एवं मालिक कुबेर साहब का बड़ा ही प्रिय एवं खास कर्मचारी था। दक्ष भी अपने मालिक की सेवा में बड़ी कर्तव्यदक्षता एवं इमानदारी से लगा रहता था । एक छोटे से पद से शुरुआत करते हुए दक्ष अपनी कार्यकुशलता व मेहनत के माध्यम से प्रगति करता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था। ऐसे होनहार और जवान पुत्र के विवाह की कामना हर माता-पिता की तरह दक्ष के माता-पिता को भी थी। शहर में अपने अकेले रहते लड़के अतिरिक्त चिंता भी उन्हे सता रही थी, सो एक अच्छी सी लड़की देखकर दक्षकुमार का विवाह धूम-धाम से संपन्न करा दिया गया। एक नामी कंपनी में अच्छे पद पर होने से उसे पत्नी भी बड़ी ही सुंदर और प्यारी मिली। नई-नई शादी थी। जग रिती के अनुसार नये जोड़े का प्यार उछाले तो मारता ही है, तो इसी रिती को निभाते हुए दक्षकुमार भी अपनी नई-नवेली पत्नी के प्यार में पूरी तरह से डूब गया। अपनी पत्नी की सारी फरमाइशें पूरी करना, उसे हर दो-तीन रोज में होटल में खाना खिलाना, हर सप्ताह शॉपिंग मॉल में भ्रमण पर जाना, पश्चात् चलचित्र अवलोकन, यह उसका प्यारा सा नित्यक्रम हो चला था।

दक्ष अपनी पत्नी के प्रेम में इस सीमा तक पागल हो गया कि कभी-कभी ऑफिस के कामों का भी उसे विस्मरण होने लगा। ऐसे ही एक दिन ऑफिस में सेल्स स्टाफ की एक अत्यंत आवश्यक मीटिंग रखी गई थी, और ठीक उसी मीटिंग में दक्ष गैरहाजिर रहा। और तो और मीटिंग के लिए एक आवश्यक फाईल भी उसने घर ले जाकर रखी थी। 

ऑफिस से दक्ष के मोबाइल पर फोन लगाकर पूछताछ हुई तब मालूम हुआ कि दक्षकुमार अपनी प्रिय पत्नी के साथ शॉपिंग हेतु बाजार में विचरण कर रहा है। कंपनी के मालिक कुबेर सर को यह बात विदित होने पर वे अत्यंत क्रोधायमान हुए। उन्होंने तत्काल दक्षकुमार को ऑफिस में उपस्थित होने का आदेश दिया। दक्षकुमार को पता चलते ही वह तुरंत ऑफिस पहुँच कर कुबेर सर के सामने उपस्थित हो गया ।

ऑफिस टाइम में एक महत्वपूर्ण मीटिंग छोड़कर पत्नी के संग शॉपिंग करने के लिये घूमते रहने को लेकर कुबेर सर उस पर भयंकर रुप से नाराज हो गये थे और दंड स्वरुप तुरंत ही दक्षकुमार का तबादला उन्होने सुदूर प्रदेश के रामटेकनगर में कर दिया । वहाँ उसे अकेले ही जाने और वहाँ का टारगेट पूरा होने तक उसे अपनी पत्नी से अलग रहने का भी क्रूर आदेश उसे मिला । दक्ष बड़ा ही दुःखी होकर ऑफिस से बाहर निकला और रामटेकनगर जाने की तैयारी के लिये घर आ पहुंचा । भारी मन से उसने यह खबर अपनी प्राणप्यारी पत्नी को सुनाई। खबर सुनकर विरह के विचार से बेचारी पत्नी भी अत्यंत दुःखी हो गई। दक्षकुमार ने अपनी तैयारी पूरी की और निकलने को हुआ। "रोजाना मोबाईल, व्हाट्स एप पर हम चैट कर लिया करेंगे और विरह की वेदना भुलाते हुए किसी तरह दिन गुजार ही लेंगे '' इस प्रकार पत्नी को अपनी ओर से सांत्वना देते हुए दक्ष ने उस से विदा ली और वहाँ से निकल पड़ा।

रामटेकनगर पहुँचते ही उसने तुरंत अपनी पत्नी को पहुँचने का फोन किया। वहाँ का ऑफिस जॉइन करने के बाद वह वहाँ धीरे-धीरे रमने लगा। रोजाना सुबह-शाम अर्धांगिनी के साथ मोबाइल पर वार्तालाप तो चल ही रहा था, लेकिन फिर भी पत्नी से विरह की वेदना में वह बुरी तरह तड़पा जा रहा था । इसी तरह दिन गुजरते रहे और अचानक एक दिन दक्षकुमार ने पाया कि पत्नी से मोबाइल पर संपर्क नहीं हो रहा। उसने बड़ी देर तक और कई बार कोशिश की, लेकिन कोई सफलता उसे नहीं मिली। अगले दिन भी यही हाल रहा। दक्षकुमार कोशिशें कर-कर थक गया परंतु कोई यश नहीं मिला। "शायद पत्नी के मोबाइल का बैलेन्स खत्म हो गया होगा या मोबाइल खराब हो गया होगा' ये सोच कर मन की तसल्ली कर चुप बैठ गया। लेकिन सच यही था कि उस दिन के बाद कभी भी उसकी अपनी प्रिय पत्नी से कोई बात नहीं हो पाई।

पत्नी विरह में दक्ष बहुत ही व्यथित हुआ जा रहा था। सुबह-शाम मोबाइल पर होने वाली बातें भी अब बंद हो गईं थी। उसका न काम में मन लग रहा था न खाने में। बड़ी ही विचित्र अवस्था हो चली। दक्ष मन के साथ-साथ तन से भी दुबला हो चला। गाल पिचक गये, पेट और पीठ का मिलन हो गया। उसके कपड़े ढीले हो चले, पैंट तो कमर में इतनी ढीली हो गई के अपने-आप कमर से सटक कर नीचे खिसकने लगी। अंततः कमर के पट्टे में अतिरिक्त छिद्र करवा कर उससे पैंट कसने का इंतजाम करना पड़ा । 

कई दिन बीत गये। देखते ही देखते वर्षा का मौसम निकट आ गया। आसमान में काले-काले बादल घुमड़नेे लगेे। आषाढ़ मास शुरु हो चुका था। यह सब देखकर दक्ष मन में विरह की आग से और भी अधिक व्याकुल हो गया। अपनी प्रिया से बात करने का भी कोई रास्ता बचा न था। पत्नी को अपना संदेश कैसे पहुँचायें इस बात पर बहुत विचार कर अंततः उसे एक उपाय सूझा । तुरंत उसने एक गुलाबी कागज पर एक लम्बा सा प्रेम-पत्र लिख डाला। जन रिती अनुसार उस पत्र पर इत्र-परफ्यूम छिड़क कर एक लिफ़ाफ़े में बंद कर अपने घर का पता - "प्रेमसदन, 63, अलकापुरी कालोनी, इन्द्रनगर" एवं भेजने वाले अर्थात स्वयं का नाम व मोबाइल नं. लिखकर वह पत्र त्वरित रवाना हो इस उद्देश्य से "गगन कोरियर सर्विस' में ले जाकर दे दिया। दक्ष कुमार के करुण निवेदन तथा अर्जेन्सी को देखते हुए कोरियर वालों ने भी उस पत्र को तत्परता से पहली ही डाक से वांछित पते पर रवाना करवा दिया ।

पत्र जल्द ही दक्षकुमार के गृहनगर की कोरियर कंपनी की शाखा में आ पहुँचा। पत्र को दिये हुए पते पर पहुँचाने की जिम्मेदारी "मेघकुमार' नामक कोरियर बॉय पर आ पड़ी। मेघकुमार शहर के अलकापुरी क्षेत्र के अन्य पत्रों के साथ दक्ष का भी पत्र लेकर वितरण करने निकल पड़ा। उस क्षेत्र में मेघकुमार ज्यादा आना-जाना नहीं होने से उसे दक्ष के घर का पता मिलने में कठिनाई हुई। बड़ी कोशिश के बाद भी उसे जब पता नहीं मिला तब उसने घर तक पहुँचने का रास्ता ठीक से समझने के लिए पत्र भेजनेवाले अर्थात दक्षकुमार के मोबाइल पर फोन लगाया। दक्ष के पूछने पर उसने अपना परिचय देकर पता ढूंढने में आ रही कठिनाई के विषय में बताया और पता ठीक से समझाने के लिये निवेदन किया।

तब दक्ष ने उससे कहा - हे मित्र मेघ, एक बड़ा ही महत्वपूर्ण कार्य मैंने तुम पर सौंपा हुआ है। तुम्हारे हाथ में रखा हुआ यह पत्र मैंने अपनी प्रिय पत्नी को लिखा हुआ है। मित्र, कोशिश करना कि जल्द से जल्द यह पत्र उसके हाथ पहुँचे। अच्छा बताओ, तुम अभी कहाँ खड़े हो ?

तब मेघकुमार ने जवाब दिया-हे प्रभु, मैं इस समय, प्रत्येक नगर में अवस्थित होने वाले महात्मा गांधी रोड नामक पथ के नेहरु प्रतिमा वाले चौक पर खड़ा हूँ, कृपया मेरा मार्गदर्शन करें।

तब दक्ष ने उसे रास्ता समझाने के उद्देश्य से आगे कथन किया - मित्र मेघ, तुम बिलकुल ठीक स्थान पर खड़े हो, यहाँ से तुम्हे पता ढूंढने में जरा भी कठिनाई नहीं होगी, तुम केवल मेरे निर्देशों का पालन करते चलो। हे मेघदूत, तुम नेहरुजी के मुख की दिशा में मुख्य मार्ग पर सीधे चल पड़ो। आगे चलते-चलते तुम्हे बायीं ओर तीसरी गली के कोने पर मिल्क पार्लर नामक एक गुमटी मिलेगी, जहाँ दुग्ध छोड़कर बाकी सारी वस्तुएँ, यथा ब्रेड, बिस्किट, अंडे, नमकीन, सिगरेट, चॉकलेट्स, गुटखा, बेक्ड समोसा आदि करीने से जमा कर रखे हुए दिखेंगे । लेकिन मित्र, तुम उनकी ओर तनिक भी ध्यान मत देना। तुम उस गली को छोड़ चौथे क्रमांक की गली में प्रवेश कर लेना । उस गली में घुसने के बाद तुम सीधे ही चलते जाना। आगे काफी दूर चलने के बाद तुम्हे वहाँ पाईप लाईन की दुरुस्ती के लिये नगर पालिका द्वारा खोदा गया एक बड़ा सा गड्ढा मिलेगा। मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि आठ माह पहले खुदा हुआ वह गड्ढा अभी तक नगर पालिका द्वारा भरा नहीं गया होगा। परंतु मित्र, तुम उस गड्ढे में मत उतरना, हो सकता है कि उसमें अब तक काफी सारा कीचड़ जमा हो गया होगा। तुम वह गड्ढा सावधानीपूर्वक लांघकर आगे की ओर बढ़ जाना ।

आगे चलने पर दायीं ओर के नुक्कड़ पर अवस्थित एक रिक्त भूखंड दिखाई देगा । उस पर आस-पास के लोगों द्वारा फेंके गये अवशिष्ट अर्थात् कचरे का एक बड़ा सा पर्वताकार ढेर दिखेगा तथा उसकी भयानक दुर्गंध से सारा परिसर सरोबार हो चुका होगा । तब तुम ऐसा करना मित्र, तुरंत अपनी जेब से रुमाल निकालकर अपनी नाक ढँक लेना और कचरे के ढेर से किनारा कर दायीं दिशा की ओर प्रयाण कर जाना । कुछ पचास कदम आगे बढ़ने पर एक चौड़ा पथ दिखाई पड़ेगा । उस मार्ग के बाईं ओर "अवंतिका' कन्या महाविद्यालय की राजमहलसदृष्य भव्य अट्टालिका दृष्टिगत होगी । मित्र तुम अगर प्रातः दस बजे अथवा दोपहर तीन बजे के लगभग वहाँ से गुजर रहे होंगे तो अनेक सुंदर, सुकुमार कन्याओं की टोलियाँ उस रास्ते पर से लचकती, बल खाती हुई चलती हुईं दिखाई पड़ेंगी। और निश्चय ही उन टोलियों के पीछे नवयुवकों की कोई टोली भी मुख से शिट्टीका ध्वनि का उद्घोष करते या अपने शब्दबाणों से युवतियों को छेड़ते हुए उनका अनुसरण करते दिखाई पड़ेगी। मित्र तुम दो घड़ी पथ के एक ओर खड़े हो कर इन नवयुवकों को अपने स्मित से उत्तेजन देती हुईं कमनीय तरुणियों के दर्शन करना। संभव हुआ तो तुम भी एकाध सीटी बजा लेना। कुछ देर विश्रांति लेना और तब आगे बढ़ना ।

चलते-चलते मित्र, अब तक तुम्हारा कंठ शुष्क हो चुका होगा। महाविद्यालय के कोने पर ही एक शीतल जल की मन्दाकिनी प्याऊ है। तुम वहाँ रुक कर अपनी तृष्णा शांत कर लेना। नजदीक ही में स्थित हिमालय अल्पाहार केन्द्र में उपलब्ध अमृततुल्य राष्ट्रीय पेय चाय का आस्वाद लेना भी तुम्हे अवश्य पसंद आयेगा। चायपान के पश्चात ताजादम हो कर तुम अगला रास्ता तय करने निकल पड़ना । उसी दिशा में बगैर मुड़े तुम आगे बढ़ते जाना। तुरंत ही तुम्हे एक विशाल मैदान नजर आयेगा। सम्पूर्ण मैदान में गाजर घास के झुरमुटों के बीच विचरते वराह अर्थात सुअरों के झुंड तुम्हे यत्र-तत्र दिखाई पड़ेंगे । मैदान के गहरे गड्ढेनुमा हिस्से में पानी अथवा कीचड़ जमा हुआ दिखेगा, उसमें बैठीं स्नानानंद का रसपान करतीं भैंसे और उनके आगे-पीछे मंडराते शुभ्र-धवल बगुले नामक पक्षीकुल के दर्शन लाभ का भाग्य भी शायद तुम्हे प्राप्त हो ।

हे मित्र मेघदूत, मैदान पीछे छोड़कर तुम जब आगे की ओर बढ़ोगे तब तुम्हे एक चढ़ाई मिलेगी। उस टेकरी पर चढ़ आने के बाद कोई ठंडी हवा की लहर शायद तुमसे टकरा जाये, मित्र तुम जरा भी न घबराना। क्योंकि अलकापुरी कॉलोनी के बिलकुल नजदीक आकर तुम खड़े हुए हो। चढ़ाई खत्म होते ही कॉलोनी का प्रवेशद्वार है और वहीं अलकापुरी की नामदर्शक पट्टिका भी स्थापित की हुई है। उस द्वार से अंदर प्रवेश करते ही रास्ते में खड़ी गाय, भैंसे, बकरियाँ आदि से बचते हुए तुम छठे क्रमांक की गली तक पहुँच जाना। गली के कोने पर नगर पालिका द्वारा रखी हुई एक कचरापेटी दृष्टिगोचर होगी। कॉलोनी का कचरा उस पेटी के अंदर होने की बजाए पेटी के आस पास बिखरा हुआ पड़ा होगा। वहाँ पड़े कचरे को उचकाने-बिखराने में लगे श्वानों - वराहों से बच कर बड़ी होशियारी से तुम उस गली में प्रवेश कर जाना ।

गली में आगे बढ़ने पर तुम्हे कैलासपति श्री शंकर भगवान का एक देवालय दिखाई पड़ेगा। भगवान महादेव के दर्शन लेने के पश्चात तुम जब मंदिर से बाहर निकलोगे, ठीक सामने ही ६३ क्रमांक का "प्रेमसदन' नामक मेरा निवास है । परिसर का द्वार खोलकर तुम वहाँ प्रवेश करना परंतु अचानक से द्वारघंटिका मत बजा देना। कदाचित् मेरी प्रिया निद्रावस्था में स्थित होगी या वह मेरे स्वप्नों में खोई हुई होगी। द्वारघंटिका की कर्कश ध्वनि से उसके स्वप्न में व्यवधान उत्पन्न होगा। पहले तुम बाजू वाले गवाक्ष से धीरे से झांक कर देख लेना। अगर मेरी प्रिया निद्रावस्था में हो तो वहीं से अपने साथ रखी पानी की बोतल से कुछ पानी लेकर उस के मुखकमल पर हल्के से छींटे मार देना। तनिक प्रतीक्षा करना। वह निद्रावस्था से बाहर आने पर मेरे मित्र, मेरा यह पत्र तुम उसके अधीन कर देना और फिर चाहे अपने शेष पत्र वितरण करने चले जाना । धन्यवाद मित्र मेघदूत !
- पथप्रदर्शनानन्द (विवेक भावसार)