Thursday, July 9, 2020

फोटोफ्रेम (हिंदी)





विनयजी आज काफी प्रसन्न मूड में घर लौटे. वजह ही ऐसी थी. एक फोटोफ्रेम जो कई दिनों से उनकी नजर में थी उसे भंगार बाजार से लाने में आज वे सफल हुए थे. विनयजी को पुरानी वस्तुएं इकठ्ठा करने का शौक था. अनेक पुरानी चीजे उनके संग्रह में थीं. ऐसी वस्तुओं की खोज में वे ऑफिस से लौटते हुए अक्सर पुराने सामान के बाज़ार में चक्कर लगा लिया करते थे. और ऐसे ही में उन्हें वो धातू की नक्काशीदार फ्रेम दिखाई पड़ी. उनके अनुमान से वह फ्रेम 70-80 साल पुरानी रही होगी. हालाँकि वह फ्रेम काफी मैली और गन्दगी से भरी थी, सफाई के बाद वह बहुत सुन्दर दिखाई देगी यह बात उनकी अनुभवी दृष्टी ने पहचान ली थी. थोडा मोलभाव कर काफी कम कीमत में उसे ला पाने में वह कामयाब हुए थे.


फ्रेम को शबनम में से टेबल पर निकाल वह बाथरूम में गये, हाथ मुँह धो कर, कपड़े बदल वह रसोई बनाने में भिड गए. विनयजी की पत्नी गुजर जाने के बाद वे अकेले ही उस फ़्लैट में रहा करते थे. उनकी इकलौती लड़की सुप्रिया का विवाह साल–डेढ़ साल पहले ही हुआ था और उसके कुछ ही दिन बाद उनकी पत्नी का देहावसान हो गया था. घर में अब वे अकेले ही रह गये थे.
रसोई बनाने और खाना खा लेने के बाद वे आज खरीद कर लाई हुई फ्रेम का निरिक्षण करने में जुट गये. फ्रेम में लगा ख़राब पुठ्ठा और टूटे-फूटे काँच को अलग कर कचरापेटी में फेंक दिया. फ्रेम पर लगी धूल उन्होंने ब्रश की मदद से साफ़ की, किन्तु नक्काशी के बीच गहरी चिपकी गन्दगी को साफ़ करने के लिए उन्हें साबुन के पानी और पीताम्बरी आदि से अच्छे से रगड़ कर खूब धोना पड़ा. इस मेहनत के बाद उभरी हुई फ्रेम की खूबसूरती देखकर वे दंग रह गए. अगले दिन ऑफिस का अवकाश था तो उसका फायदा उठाते हुए बाजार जा कर एक फोटोफ्रेमिंग की दुकान से उस फ्रेम में काँच और पीछेवाला पुठ्ठा लगवा लिया.   

घर आकर उस फ्रेम में किसका फोटो लगाया जाये इसका विचार करते हुए याद आया कि पड़ोस के फ़्लैट में रहने वाली निधि का फोटो अलमारी में रखा हुआ है. विनयजी ने अलमारी का  दराज खोला. उसमें निधि के तीन चार फोटो रखे हुए थे, उनमें से उस फ्रेम की साईज के अनुरूप एक फोटो चुनकर उन्होंने फ्रेम में फिट कर दिया. पाँचवी कक्षा की छात्रा निधि उनके पडौसी त्रिवेदीजी जी पुत्री थी. पढाई में बड़ी होशियार और स्मार्ट निधि विनयजी की काफी लाडली थी. स्कूल के बाद या छुट्टी के दिन वह अपने विनय अंकल के यहाँ आकर बैठा करती, खूब गप्पे लड़ाई जातीं, तरह-तरह की बातें होती और खाने की चीजों का मजा लिया जाता.
   
निधि के फोटो लगी फ्रेम को अपने बेडरूम में बिस्तर के नजदीक की मेज पर जमा दिया और रात को अपने निर्धारित समय बिस्तर पर लेट गए. कुछ ही समय में वे नींद में डूब गए. देर रात अचानक उन्हें शोरगुल सुनाई दिया और नींद खुल गई. सडक पर लोग शोर मचा रहे होंगे यह सोच उन्होंने पुनः सो जाने के इरादे से करवट बदली. तभी उनका ध्यान मेज पर रखी निधि कि फोटोवाली फ्रेम पर गया. अँधेरे में जैसे कोई टीवी चल रहा हो इस तरह वह फ्रेम प्रकाशमान हो गई थी. एक जीवंत, चलता फिरता दृश्य उसमें दिखाई दे रहा था. किसी सभागृह में घोषणा की जा रही थी ... “आज के इस भाषण प्रतियोगिता में पहले स्थान की विजेता हैं, कक्षा पाँचवी से कुमारी निधि त्रिवेदी” और उसके बाद तालियों की गड़गड़ाहट के बीच निधि ने पुरस्कार ग्रहण किया. उसके बाद वह चलायमान दृश्य दिखना बंद हो गया. यह देख विनयजी आश्चर्यचकित रह गये. बड़ी देर तक उन्हें कुछ सुझाई नहीं दे रहा था. फ्रेम में चल रहा वह दृश्य बार-बार उनकी आँखों के सामने से गुजर रहा था. वह सपना था या मन की कोई कल्पना थी या सचमुच इस तरह की कोई घटना उन्होंने देखी थी यह सोचते हुए काफी देर बाद उन्हें नींद लगी. सुबह डोअर बेल की आवाज से उनकी नींद खुली. आँखे मलते हुए जब उन्होंने दरवाजा खोला तो देखा, सामने अपना स्कूल यूनिफ़ॉर्म पहने निधि खड़ी हुई थी. उसने तुरंत विनयजी के चरणस्पर्श करते हुए कहा, “वीनू चाचा, मुझे आशीर्वाद दीजिये, आज स्कूल में भाषण प्रतियोगिता है और मैंने भी उसमें भाग लिया है.”
विनयजी को खट्टसे रातवाला दृश्य याद आ गया, वे बोले, “बेटा, पहले नम्बर से जीतोगी तुम देखना, शाम को आ रहा हूँ मिठाई खाने... तैयार रखना.”
“क्या अंकल ! मेरी तो ठीक से तैयारी भी नहीं हुई.” निधि कह रही थी. “कल आपसे मिल कर टिप्स भी लेनी थी, लेकिन आप दिनभर घर पर भी नहीं थे, वरना सुबह-सुबह मैं आपको परेशान नहीं करती.”
“चिंता मत करो बिटिया, जीतोगी तो तुम ही... बेस्ट लक.” रात में देखे सपने के आधार पर विनयजी बोल गए.   
निधि स्कूल निकल गई और विनयजी अपनी दिनचर्या में लग गए और अपने समय पर ऑफिस रवाना हो गये. शाम को लौटते ही घर का दरवाजा खोलने के पहले ही निधि वहाँ हाजिर थी.
“अंकल, चलो मेरे घर.. एक खुशखबरी देनी है.”
विनयजी ने त्रिवेदीजी के घर में प्रवेश किया.
निधि ने मिठाई की प्लेट आगे करते हुए कहा, “अंकल, आपने कहा था वैसा ही हुआ, मुझे भाषण प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला है. ये देखिये मेरा पुरस्कार.”
विनयजी भौंचक रह गये, रात में उस दृश्य में देखा हुआ पुरस्कार ठीक ऐसा ही था. क्या यह संयोग था या जिसे इंट्यूशन कहते हैं वैसा कुछ था? विनयजी का सर चकराने लगा. किन्तु खुद को सँभालते हुए नाश्ता और चाय समाप्त कर वे अपने घर में आ गये.

अब उन्हें उस फ्रेम की पुनः एक बार परीक्षा लेनी थी. रात सोने से पहले उन्होंने किसी फ़िल्मी मासिक पत्रिका से एक वरिष्ठ अभिनेता का फोटो काटकर फ्रेम में फिट किया. आज रात क्या होता है, इस बात के लिए वे काफी उत्सुक हो रहे थे. देर रात वैसी ही घटना घटी. फ्रेम में चलचित्रों की मालिका चलने लगी. उस प्रसिद्ध अभिनेता पर किसी अभिनेत्री द्वारा शूटिंग के समय उसके साथ गलत बरताव करने आरोप लगाया गया था और वह अभिनेता न्यूज चैनल्स के पत्रकारों के सामने स्वयं को निर्दोष कहते हुए अपनी सफाई देने की कोशिश कर रहा था.
एक डेढ़ मिनट चलने के बाद वह दृश्य दिखना बंद हो गया. विनयजी भी उस सज्जन अभिनेता पर किये गए आरोप पर अचरज करते हुए सो गये. अगले तीन-चार दिन वे उस समाचार की टीवी पर बाट जोहते रहे, किन्तु इस तरह का कोई समाचार टीवी पर प्रसारित नहीं हुआ. इसलिए निधि के विषय में देखे हुए दृश्य को संयोग समझते हुए छोड़ दिया. इस बीच वह फोटो फ्रेम में वैसा ही लगा हुआ रह गया.

अगले रविवार विनयजी दोपहर की चाय लेते हुए टीवी के सामने बैठे हुए थे. तभी एक समाचार फ़्लैश हुआ. उसमें वहीँ अभिनेता अपनी सफाई देता हुआ नजर आ रहा था. जो दृश्य विनयजी ने उस रात देखा था, हुबहू उनके सामने फिर से दिखाई दे रहा था. इस बार विनयजी चमक गये. यानी उस फोटो फ्रेम में जिसकी तस्वीर लगी हो, उस व्यक्ति के जीवन में भविष्य में घटनेवाली घटना का संकेत मिल जाता हैं.. यह बात सच है!”

यह सब संयोग न होते हुए उस फोटोफ्रेम का ही चमत्कार है यह विनयजी को विश्वास हो चला था. बहुत सोचने के बाद इस बारे में किसी से उल्लेख करना ठीक नहीं होगा यह निर्णय उन्होंने ले लिया, क्योंकि कोई इस पर भरोसा नहीं करता या इस बात का गलत इस्तेमाल होने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता था. और इस बाबद चर्चा हो यह भी वे नहीं चाहते थे. लेकिन फिर भी फ्रेम के चमत्कार की विश्वसनीयता जांचने के लिए विनयजी ने एक गैरमशहूर क्रिकेट खिलाड़ी की तस्वीर एक अखबार में से निकाल उस फ्रेम में लगा दी. पहले की तरह ही सारा घटनाक्रम हुआ, उस खिलाड़ी ने सैंकड़ा जमा कर एक हारते हुए मैच मैं अपनी टीम को जीत दिलाई थी. मैदान में खिलाड़ी के सम्मान में जोश भरे नारे लगाते दर्शकों विनयजी ने देखा. कुछ ही दिनों बाद दो देशों के क्रिकेट की वन-डे सीरिज में पदार्पण मैच में ही एक नये खिलाड़ी ने शतक ठोक देने की खबर फोटो समेत अखबार के पहले पन्ने पर झलक रही थी. उसमें दिखाया गया फोटो उस रात देखे गये दृश्य का ही एक भाग था. इस बार विनयजी इस चमत्कारी फ्रेम को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हो गये. विनयजी ने उसके बाद अनेक बार फोटो बदल-बदल कर फोटोफ्रेम के चमत्कारों का जायजा लिया, फ्रेम की परीक्षा ली. किन्तु कभी स्वयं का फोटो लगाकर देखने की हिम्मत वे नहीं जुटा पाए, पता नहीं कुछ अनपेक्षित सामने आ कर खड़ा हो जाये.

तभी निधि की वार्षिक परीक्षाएं नजदीक आ गयी थीं. निधि के विषय में जानने कि उत्सुकता ने उन्होंने पुनः एक बार निधि का फोटो उस फ्रेम में फिट कर दिया और उस रात उस्तुकता से बाट देखते रहे. वह पल आ गया, फ्रेम प्रकाशमान हुई. निधि का परीक्षाफल दिखाई दे रहा था, दो विषय छोड़ कर निधि सभी विषयों में अनुत्तीर्ण दिख रही थी. विनयजी को लगा, इस बार फ्रेम से कोई बड़ी गलती हुई है, क्योंकि निधि जैसी होशियार लड़की जो अपनी कक्षा में प्रथम पाँच में स्थान रखती थी, परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाए... इस बात पर वे कतई विश्वास नहीं कर पा रहे थे. फिर भी वह बात उन्होंने अपने तक सीमित रखी.

आखिर होते होते निधि की परीक्षा के दिन नजदीक आ गये. हिंदी का प्रश्नपत्र उसने बहुत बढ़िया तरीके से हल किया था. अगला परचा विज्ञान का था. विज्ञान का परचा भी निधि ने अच्छा हल किया था. निधि के पर्चे अच्छे हो रहे हैं यह देख विनयजी को संतोष हो रहा था. तीसरा पेपर कम्प्यूटर का था. हमेशा की तरह आज भी निधि विनय अंकल के पैर छू कर स्कूल गई. शाम को विनयजी ऑफिस से लौटकर निधि के पास पेपर के बारे में जानकारी लेने पहुँचे. तो देखा निधि बुखार में पड़ी थी. पेपर हल करते–करते ही बुखार चढ़ने से वह पेपर जैसे-तैसे पूरा कर घर लौट गई थी. उसे अपने अगले पर्चों की चिंता सता रही थी. लगातार तेज बुखार की वजह से वह अपनी शेष परीक्षा में भाग नहीं ले पाई. यह देख विनयजी को उस फ्रेम पर बहुत गुस्सा आया, मानों यह सब उस फ्रेम की ही गलती थी. फ्रेम में से फोटो हटाकर उन्होंने वह फ्रेम अलमारी में पटक दी. काफी दिन हो गये, धीरे-धीरे वे उस फ्रेम को भूल गये.

बहुत दिनों बाद विनयजी आज बड़े खुश थे. उनकी पुत्री सुप्रिया कल अर्थात रविवार को हफ्तेभर के लिए आ रही थी. एक ही शहर में निवास होने से वह महिने-दो महीने में मिलने आ जाया करती थी, लेकिन बहुत कम समय के लिए. इस बार वह ज्यादा दिन के लिए आ रही थी, इसलिए विनयजी बाजार से सब्जियाँ, मिठाइयाँ, फल आदि लाकर फ्रीज भर दिया था. और भी अनेक तरह के सामान लाकर रख दिए. रविवार आया. विनयजी सुबह से बालकनी में बैठ सुप्रिया की राह देख रहे थे. नीचे एक रिक्शा आकर रुकी. उसमें से सुप्रिया को उतरते हुए उन्होंने देखा. विनयजी तुरंत नीचे उतरे. तब तक सुप्रिया ने अपना बैग उतार लिया था.
“अकेले ही आई ? कुंवर साब नहीं आये ??, मैं सोच रहा था तुम्हे छोड़ने के लिये वे आयेंगे.”  
“नहीं, वे कम्पनी के काम से टूर पर गये हैं 10-12 दिन के लिए, तभी तो मैं आ पी इतने दिन के लिए.” सुप्रिया ने जवाब दिया.
“आओ ऊपर चलें.” कहते हुए विनयजी ने बैग उठाया और चढ़ाव चढ़ने लगे.
घर में आ कर बैग कमरे में रख चाय बनाने रसोईघर में निकल गये. चाय की चुस्कियों के साथ बिटिया के हालचाल जानने के बाद विनयजी बोले, “मैं अभी आया दस मिनट में, चौराहे पर “स्वरुचि” से लंच पैक ले आता हूँ, आते ही खाना बनाने की झंझट में मत पड़ो.

दोपहर का भोजन कर आराम भी हो गया. शाम की चाय लेते हुए सुप्रिया ने कहा, “पापा, घर में कितना कुछ फैलारा हो गया है, थोड़ी साफ़-सफाई भी जरूरी लग रही है. आप कल ऑफिस जाओगे तब कुछ व्यवस्थित कर लूंगी.”
“ठीक है बेटा, तुम्हे जैसा लगे कर लो, मैं बहुत ज्यादा समय नहीं दे पाता इन सब को. अब तुम आ गई हो तो देख लेना.”

अगले दिन विनयजी ऑफिस चले गये और सुप्रिया ने हॉल से सफाई की शुरुआत की. हॉल निपटने के बाद उसने बेडरूम की ओर मोर्चा बढाया. टेबल, कुर्सी, बेड आदि को व्यवस्थित करने के बाद अलमारी को जमाने के लिए खोला. अलमारी का सारा सामान, किताबें आदि झटक-पोंछ कर पुनः जमाते समय उसकी नजर उस खाली फ्रेम पर पड़ी. इतनी सुन्दर फ्रेम देख वह बड़ी खुश हुई, किन्तु ऐसी सुन्दर खाली रखी हुई देख उसे अच्छा नहीं लगा. फ्रेम को ठीक से पोंछ कर पुराने अल्बम से अपने ही बचपन की एक फोटो निकाल उसमें लगा दी और वह फ्रेम टेबल पर फ्लावरपॉट के बगल में जमा कर रख दी.
विनयजी शाम को जल्द ही घर लौट आये. चाय नाश्ता कर काफी देर तक वे सुप्रिया के साथ बातें करते रहे. उसके बाद सुप्रिया ने रात का भोजन बनाया. दोनों ने रात का खाना खाया. उसके बाद विनयजी अपने कमरे में सोने चले गये. किन्तु टेबल पर रखी उस फ्रेम पर उनका ध्यान नहीं गया. देर रात किसी के बुक्का फाड़ के रोने की आवाज से उनकी नींद खुल गई. आवाज पहचानी लग रही थी. आवाज की दिशा में देखने पर उनका ध्यान टेबल पर रखी फ्रेम की ओर गया. उसमें सुप्रिया जोर-जोर से रोते हुए दिखाई दे रही थी. दस – पंद्रह सेकण्ड चलने के बाद वह दृश्य ख़त्म हो गया. विनयजी काँप उठे. उस फ्रेम के लिए उनके मन में एक डरयुक्त चिढ़ उभर आई.  उसी क्षण उन्होंने तय कर लिया कि इस फ्रेम का जल्द से जल्द निपटारा कर देना चाहिए. अभी देखे हुए दृश्य ने उन्हें बेचैन कर दिया और इस वजह से वे रातभर सो नहीं पाए. काफी रात बीत जाने पर पता नहीं कब उनकी आँख लगी.

सुबह जागते ही उन्होंने मुँह धोया, चाय लेते ही एक निर्णय कर उठे. टेबल पर से उस फ्रेम को उठा कर शबनम में रखी और सुप्रिया से “आया आधे घंटे में” कहते हुए घर से निकल गये. चलते-चलते नदी के संकरे पुल पर पहुँचे. धीरे-धीरे नदी के ठीक ऊपर पुल के बीचोबीच आकर खड़े हुए. उन्होंने शबनम से वह फ्रेम बाहर निकाली और हाथ उठाकर नदी के पानी में दूर फेकने को हुए तभी उनका संतुलन बिगड़ा और पीछे की तरफ गिर पड़े. लेकिन.... तभी एक ट्रक धड़धडाते हुए पुल पर से गुजरा और उन्हें कुचलते हुए आगे निकल गया.

(मेरी ही एक मराठी रचना का अनुवाद)
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Saturday, June 27, 2020

बारात


लॉकडाउन में इस बार सबसे बड़ी कमी सबने महसूस की वह थी शादियाँ। शादी या विवाह एक ऐसा प्रसंग होता है जिसमें व्यापार-व्यवसाय के लगभग हर क्षेत्र से कुछ न कुछ काम पड़ता ही है। पत्रिकाएं छापने के लिए कागज, छपाईवाले से लेकर, कोरियर, कपड़े, दर्जी, ज्वेलर्स, किराना, टेंट, मैरेज गार्डन, ट्रांसपोर्टर, फोटोग्राफर, फोटोलैब, पूजा का सामान, मटके, हार-फूल, पंडितजी, ब्यूटी पार्लर, बैंडबाजा, घोड़ीवाला, गैस बत्ती, कैटरर आदि-आदि न जाने कितने लोगों का इस प्रसंग से जुड़ाव होता है।
शादियों के मौसम में कभी न कभी आपको भी सड़क पर देर शाम या रात में किसी बारात से सामना करना पड़ा होगा, जब इसकी वजह से ट्रैफिक जाम हुआ होगा और उसमें स्वयं को फँसा पाया होगा। शादियों के दिनों में शाम को काम से वापिस घर लौटते हुए अनेक बार मैं इस स्थिति से सामना कर चुका हूँ।
विवाह की रस्मों में से एक प्रमुख रस्म है- बारात निकालना! इसके निकलने की घोषणा विवाह से भी बहुत पहले आमंत्रण कार्ड में हो जाती है- "बारात अलानी जगह से फलानी जगह के लिए 'ठीक' अमुक बजे निकलेगी।" (आमंत्रण कार्ड में इस सूचना को लिखने की जगह भी निश्चित होती है ठीक उसी तरह जैसे एक पुस्तक के पन्ने पर फुट-नोट की जगह तय होती है।) अनुभवी लोगों को पता होता है कि यह ठीक समय क्या होता है, इसलिए ऐसे लोग बारात में शामिल होने के लिये बिल्कुल 'ठीक' समय पर पहुँचते हैं यानी निर्देशित ठीक समय के 'ठीक' एक-डेढ़ घण्टे बाद। तब तक बारात के लिए सारे आवश्यक तत्व इकठ्ठा होने शुरू हो जाते हैं, जिनका वर्णन आगे है। (बारात यदि बस आदि से दूसरे शहर जाने वाली हो तो इसमें शामिल किये जाने वाले बहुत ही खास लोग होते हैं। इसमें शामिल होने के आमंत्रण से पता चलता है कि उस परिवार के लिये आप महत्वपूर्ण है या नहीं।)
आमंत्रण कार्ड पर निर्देशित बेला पर विवाह स्थल के लिए निकलने के लिये तैयार एक बारात के लिए बहुत से तत्व आवश्यक होते हैं जिसमें प्रमुख हैं-
*एक सवारी वाली घोड़ी, यह उपलब्ध न हो तो कार
*एक बैंड, ये उपलब्ध न हो तो DJ से सजी गाड़ी
*अलग से एक ढोल वाला
*बाराती (जिनमें शामिल होते हैं परिवारजन और रिश्तेदार)
*बारात के दौरान ट्रैफिक सम्भालने के लिए बुजुर्ग और अन्य स्वयंसेवक
*बारात में नाचने के लिए फुल टुन्न दूल्हे की मित्र मंडली...
*और इन सबसे महत्वपूर्ण... एक दूल्हा, जिसकी शादी होने वाली है।
घोड़ी और बैंड वाले तो ईमानदारी से अपने नियत समय पर पहुँच जाते हैं। फिर धीरे-धीरे घर के लोग तैयार-शैयार हो कर एक-एक कर आने लगते हैं। यदि पगड़ी बाँधनेवाला बुलवाया गया हो तो वह एक-एक का सिर पकड़ उनको पगड़ी के अंदर बांधता चलता है। (यह बात अलग है कि एक जैसी पगड़ी बांधे ये बाराती किसी बारात में बैंड वालों की B टीम नजर आते हैं।) पगड़ी बंधने की क्रिया चल ही रही होती है कि बारात के अपने गन्तव्य को प्रस्थान का ठीक समय आ चुका होता है। घर के बुजुर्ग और अनुभवी व्यक्ति बैचेन हो कर जल्दी मचाने लगते हैं, क्योंकि उन्हें पता है यहाँ से जितनी देर होगी उसके अनुरूप आगे के कार्यक्रम भी देर से सम्पन्न होंगे। उनके प्रयत्नों के फलस्वरूप सारे लोग बरात के लिए तैयार होकर धीमी गति के समाचारों की तरह एक के बाद एक अपने-अपने कमरों से निकल बारात प्रस्थान स्थल पर एकत्रित होने लगते हैं। महिला बारातियों को इसमें शामिल होने में और अधिक समय लगता है, विशेष सजधज के लिए आवश्यक वेणी-गजरे की डिमांड और उन्हें पाने की आपाधापी के बाद अंततः समस्त महिला वर्ग भी अपने साज श्रृंगार के साथ अवतरित होता है।
लेकिन बारात के प्रमुख तत्व दूल्हेराजा का इंतजार अभी भी हो रहा होता है, इन्हें अक्सर देर हो जाया करती है क्योंकि इनका सूट प्रेस करके नहीं आया होता है, या जूतों की पॉलिश नहीं हुई होती है अथवा कोई सौंदर्य विषयक मामला हो सकता है। अंततः सब कुछ ठीक हो जाने के पश्चात दूल्हे राजा का अवतरण होता है। दूल्हे राजा की घुड़चढी का कार्यक्रम सम्पन्न होता है।
अप्रेल-मई माह की कड़ी गर्मी में 3 पीस सूट पहने, पसीना पोछते दूल्हे के घोड़ी पर स्थानापन्न होने के पश्चात उसके गले में हार आदि के पहनाए जाने के बाद मुँह में एक अदद पान का बीड़ा ठूँसा जाता है। हाथों में नारियल-कटार आदि थमा दी जाती है। दूल्हेराजा की सीट पर ही आगे की ओर फ्री सीट के तौर पर एक पिद्दी भी विराजमान किये जाते हैं। ये अक्सर उसके भांजे-भतीजे में से "मेरे चाचा-मामा की छादी में जलूल जलूल आना" वाली मनुहार के नीचे लिखे नामों मंटू, बंटी, अर्पण या कैवल्य आदि में से ही कोई होता है।
यदि शाम की बारात हो तो गैस बत्ती वाले भी अब आलस झटक कर खड़े हो जाते हैं। आगे बैंड, उसके बाद पुरुषों की मंडली, फिर महिला मंडल, सबसे अंत में घोड़ी पर सवार दूल्हे राजा, बारात के दोनों तरफ गैस बत्ती सिर पर ढोते मजदूर और दूल्हे के भी पीछे बत्ती वालों की अपने निराले बैंड का आवाज करती जनरेटर की गाड़ी यह क्रम पूरा करते हुए बारात चींटी की गति से चल पड़ती है।
बारात आरंभ होने पर इस रस्म का पहला रजिस्टर्ड गाना..''आज मेरे यार की शादी है".. बैंड पर बजता है। लेकिन यह गाना खत्म हो उसके पहले ही दूल्हे नृत्योत्सुक मित्र मंडली (जो बारात शुरू होने के पहले किसी को कानोकान खबर हुए बिना निकट के किसी उत्तेजक पेय की दुकान से ऊर्जावर्धक पेय के यथोचित डोस लेकर ऊर्जा से लबरेज होती है) बारात के चौराहे पर पहुँचने से पहले ही अपना नृत्य कार्यक्रम शुरू कर देती है।
यद्यपि बारात का सबसे प्रमुख कार्य दूल्हे को लेकर आगे बढ़ना होता है किन्तु इसमें व्यवधान के रूप में नृत्य का कार्यक्रम अब अतिआवश्यक अंग हो गया है। कुछ लोग विशेषकर नवयुवक - युवतियाँ बारातों में अपनी नृत्य कला प्रस्तुत करने के लिए सदैव लालायित रहते हैं। नृत्य प्रदर्शन के साथ-साथ 'किसी विशेष' पर अपना प्रभाव ज़माना, युवकों के लिए ये एक तीर में दो निशाने साधने जैसा मौका होता है।
बारात के नाच में एक खास बात ये भी होती है की आपको "नाच न आने पर भी आंगन या सड़क टेढ़ा'' जैसा कोई कॉलम नहीं होता। आप किसी भी तरह से आड़े-तिरछे हाथ पैर चलाते हुए, कमर को हिलाते मुक्त भाव से नाच सकते हैं। चतुर बैंड वाले अब इसके पश्चात एक-एक करके नृत्योपयोगी गीत बैंड पर बजाते चलते हैं ताकि अधिक से अधिक न्योछावर की राशि अपनी जेब के हवाले करते रहें। वीर जवानों के देश के ये ऊर्जा से ओतप्रोत हो चुके वीर भिन्न-भिन्न गीतों की धुन पर अपना नृत्य कौशल लगातार अर्थात नॉनस्टॉप दिखाते चलते हैं, जिसमें काला कौवा, मुंगला आदि प्राणिवाचक गीत से लेकर नागिन डांस तक का समावेश होता है।
ये वीडियो नहीं देखा तो क्या देखा' की तर्ज पर वैवाहिक नर्तकों में भी अलिखित नियम है कि अगर "नागिन धुन पर डांस नहीं किया तो क्या डांस किया ?" बारातों के डांस के इतिहास में इसे सबसे लोकप्रिय, प्राचीन और सबसे आसान डांस का सम्मान प्राप्त है। बैंड पर धुन के शुरू होते ही जेब का रुमाल बाहर निकाल कर उसका एक सिरा दांतों में दबाकर व् दूसरे सिरे को उंगलियों में बीन की तरह पकड़ कर एक नर्तक सपेरे की भूमिका में आ जाता है. (बारात में चलते समय रुमाल को खास इसी प्रयोजन से खीसे में रखा जाता है ). जिसके पास रुमाल नहीं होता उसे इस नृत्य में हथेलियों को फन जैसा आकार देते हुए जमीन पर लोट लगाते हुए बैंड पर बज रही नागिन धुन पर साँप की तरह लहराते-बल खाते हुए नागिन की भूमिका निभानी पड़ती है। इस नृत्य में सपेरे और नागिन के हावभावों और कमनीयता की जुगलबंदी विशेष दर्शनीय होती है।
इस बीच बारात में शामिल बुजुर्ग और वह युवक जिन्हें नृत्य कला दिखाने में रुचि नहीं होती, बारात के साथ हाथों में एक दूसरे के हाथ पकड़े सुरक्षा घेरे की भांति जंजीर बना चलते हुए अपनी उपयोगिता सिद्ध करने का जतन करते हैं। इनमें से कुछ लोग यातायात नियंत्रक की भूमिका भी निभाते हुए होते हैं जो बाजू से निकलने वाले वाहनों को सड़क की 80 प्रतिशत चौड़ाई को घेरी हुई बारात से दूर की ओर दबाते हुए चालकों की परेशानी में वृद्धि करते हैं।
बारात के रूट पर किसी स्थान पर बारातियों के लिए आइस्क्रीम, कोल्ड ड्रिंक आदि श्रम परिहार के साधन उपलब्ध कराए जाते हैं। बाराती रुककर इनका आनंद लेते हैं और बारात आगे बढ़ती है। उसके बाद आइस्क्रीम के कप, कोल्ड्रिंक्स के डिस्पोजेबल गिलास सड़क पर 20-20 मीटर तक इस बात की गवाही के लिए फैलाए जाते हैं कि यहाँ से कोई बारात गुजरी है।
चलते-चलते जब बैंड पर "बहारों फूल बरसाओ" बजता है तब चतुर सुजान समझ जाते हैं कि बारात अपने गंतव्य स्थल पर पहुँच चुकी है। आधा घंटा यहाँ नृत्य का अंतिम एपिसोड होने के बाद दूल्हे द्वारा तोरण मारने की रस्म, बारात का स्वागत आदि होने के बाद बारात का यह प्रमुख कार्यक्रम समाप्त हो जाता है।

Sunday, June 14, 2020

बुरी नजर वाले तेरा मुँह काला

ट्रकों की भी अपनी ही एक दुनिया है और इस दुनिया एक महत्वपूर्ण अंग है इन पर लिखे स्लोगन। बल्कि ट्रक बनते ही इसीलिए होंगे कि इनपर स्लोगन्स-शायरी लिखे जाएं । भारत मे अगर किसी ट्रक पर स्लोगन नहीं लिखा हो तो शायद आरटीओ वाले इनको परमिट न देते होंगे। बिना नारा, स्लोगन, शायरी लिखा ट्रक मिले तो पुलिस चालान बना देती है, यह डर संभवतः ट्रक वालों में समाया होगा। कितने ही जनोपयोगी स्लोगन इस माध्यम से जन जन तक पहुंचे हैं यह आप अच्छी तरह जानते हैं। इसमें से एक स्लोगन Keep Distance आजकल के माहौल को देखते हुए अत्यंत उपयोगी है।

एक बार एक भारतीय ड्राइवर भाई को विदेश में ट्रक ड्राइवर की नौकरी लग गई। ड्यूटी जॉइन कर जैसे ही ट्रक तक पहुंचा, तो देखा ट्रक पर एक भी स्लोगन नहीं दिखा। सूनी-सूनी, खाली पड़ी ट्रक की बॉडी को देख उसे लगा यह तो किसी विधवा की भांति लग रही है जिसने अपने सारे साजश्रृंगार उतार कर रख दिये हों। भाई का मन खट्टा हो गया, कोई स्लोगन लिखवाने को दिल मचलने लगा। विदेश में हिंदी स्लोगन क्या काम के?...सो भाई ने अपने दोस्त को कुछ अंग्रेजी स्लोगन भेजने को बोला, ताकि उन्हें ट्रक पर लिखवा सके। दोस्त भी काम पर लग गया, लेकिन उसके पास कोई अंग्रेजी स्लोगन तो थे नहीं। उसने कुछ मशहूर हिंदी स्लोगन और शायरी को अंग्रेजी में बदल डाला और ये कारनामा कर दिखाया।
आप भी गौर फरमाइए...

- निक्कू ते पिक्कू ते चिंकी दी गड्डी
* Nikku & Pikku's Chinki's Vehicle.

- सावन को आने दो
*Let the Sawan come.

- आया सावन झूम के
* Sawan come by swinging.

- पापा घर जल्दी आना मम्मी याद करती है
*Dad come home fast, mom is remembering.

- टाटा407 से जोर का झटका धीरे से लगे
* Tata 407 high shock gets slowly.
 
- जगह मिलने पर साइड दी जाएगी
* Side will be given after finding space.

- बुरी नजर लगाएगा ते जुतिया खायेगा
* Who stares badly will eat shoes.

- अगर आप लेट हो रहे हो तो यह आपकी गलती है
*If you're getting late, it's your fault.

- या तो अंईया ही चालेगी
* It will walk here only like this.

- चलती है गाडी उडती है धूल
  जलते हैं चमचे खिलते हैं फूल
* Walks the vehicle flies the dust
   Burns the spoons, blooms the Fools.

- बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला।
*Bastard who having bad eyes your face will be black

- मालिक की मेहनत ड्राईवर का पसीना!
चलती है सड़क पर बनकर के हसीना!
* Owners hard work drivers sweat
Walks on road being beautifullest.

- 7 के फूल , 13 की माला ,
बुरी नज़र वाले तेरा मुंह काला
*7's flowers, 13's garland
Bad eyes owner 13 faces are black.

- बच्चे दो ही अच्छे
* Children are two good.

- सोनू, मोनू, रीतू, टीटू, हेमू दी गड्डी
*This vehicle owned by Sonu, Monu, ritu, teetu and hemu.

-आई तुझा आशीर्वाद
*mom your blessings.

OK.... TATA.... Horn (👍) Please 


धोबी का कुत्ता



एक धोबी हुआ करता था। जैसा कि उसका काम था, घर-घर से लोगों के धुलने लायक कपड़े इकठ्ठा करता, धोबीघाट पर जा कर धो लिया करता और सुखाकर वापिस उनके घर दे आता।

इसी तरह वह कभी खुद के कपड़े भी इन कपड़ों के साथ धो लिया करता था। एक बार उसका कुर्ता बहुत ज्यादा मैला हो गया था। उसने सोचा आज बाकी कपड़ों के साथ इस कुर्ते को भी धो डालूंगा, परंतु अपने काम की धुन में वह ये भूल गया कि अपना पहना हुआ कुर्ता भी धोना है। धोबीघाट से जब सारे धुले हुए कपड़े समेट कर वह घर चलने को हुआ, तब यह बात उसे ध्यान आई। उसने सोचा, "कोई बात नहीं, कुर्ता घर चल कर धो लेंगे"

किन्तु घर पहुंच कर देखा तो कुर्ता धोने पुरता पानी ही नहीं बचा था, और तो और घर में बिजली नहीं थी, वो अलग समस्या थी। आखिर उस दिन उसका कुर्ता बिना धुला ही रह गया ...और तभी से यह कहावत चल पड़ी, 

"धोबी का कुर्ता, न घर का.. न घाट का"

लेकिन कहते-कहते लोग इसमें 'कुर्ता' की जगह 'कुत्ता' कहने लगे। क्या आपने कभी देखा है कि धोबी कुत्ता ले कर जा रहा हो? अलबत्ता धोबी का एक गधा जरूर हुआ करता था जो अपने ऊपर कपड़े लाद के धोबीघाट तक आता-जाता था! कहना ही था तो ये कहते,
"धोबी का गधा, न घर का न घाट का!"

- कहावतानन्द!

Friday, June 12, 2020

फेसबुक लाईव

फेसबुक लाईव



हैलो... हैलो, आवाज आ रही है मेरी?
नहीं... आवाज नहीं आएगी...
यहाँ मेरा टाइप किया हुआ मैटर दिख रहा है ना?...
पढ़ने में तो सही आ रहा है?...
दिख रहा क्लियर?..
न दिख रहा हो तो चश्मा लगा लीजिए और अगर लगा हुआ हो तो एक बार अच्छी तरह पोंछ के दुबारा लगा लीजिए।
हाँ... तो शुरू करते हैं....

फेसबुक लाईव

****************

लॉकडाउन के चलते घर में बैठे अनेक लोग फुर्सत में हो गए थे। इसी वजह से फेसबुक पर लाइव आने का भी चलन एकाएक बढ़ गया। कोई कविताएं सुना रहे थे, कोई गीत गा रहे थे, किसी ने कहानियां सुनाई तो कोई कोरोना पर जानकारियां दे रहे थे, तो कोई विशेषज्ञ अपने विशेष विषय लेकर चर्चारत थे।
लेकिन फेसबुक पर लाइव आना बड़ा झंझट का काम है। यदि आप फेसबुक लाइव आना चाहते हैं, तो जान लेते हैं उसके लिए क्या-क्या खटकरम करने होंगे। यहाँ उसका पूरे विधि विधान सहित वर्णन किया जा रहा है। यदि इस विधि से फेसबुक लाइव व्रत किया जाए तो सफलता अवश्य ही आपके कदम चूमेगी, किन्तु उसके पहले अपने पैर अच्छी तरह धो लीजिए, अन्यथा सफलता बिदक सकती है।
फेसबुक लाइव व्रत करने के लिए आपको निम्न तैयारियां करनी है। सबसे पहले घर का एक बढ़िया कमरा देखिए जिसमें फैला हुआ कोई पसारा न नजर आए, दीवार पर मकड़ी के जाले, दाग धब्बे न दिखें, दीवार बढ़िया साफ पुती हुई या अच्छे पर्दे से ढँकी हुई हो... और जहाँ नेट के सिग्नल फुल फ्लैश आते हों। इस तरह की लोकेशन मिलने के बाद उस दीवार पर पीछे की ओर सुंदर पेंटिंग या कोई गुलदान या महापुरुष की प्रतिमा फिट कीजिए।
ये तो लाइव का बैकग्राउण्ड तैयार हुआ।.... इतना सब झमेला करने के बाद खुद पर ध्यान देना आवश्यक है... व्यवस्थित केश सज्जा, शेविंग कर लीजिए ताकि आपकी अच्छी छवि लाइव पर दिखे। अब चाहिए एक अच्छी वेशभूषा... पहनने के लिए एक बढ़िया सा शर्ट या कमीज छाँट लीजिये। नीचे कुछ न पहना तो भी चलेगा, ( कुछ न अर्थात पैंट आदि से मतलब है। नीचे पजामा, बरमूडा से भी काम चल सकता है क्योंकि यह लाइव की फ्रेम में वह नहीं दिखनेवाला है) यह सब तामझाम दिखने के लिए पर्याप्त प्रकाश व्यवस्था और मोबाइल को स्थिर रखने की व्यवस्था कर लीजिए। साथ में इसका भी ध्यान रखे कि लाइव में आपके बच्चे या श्रीमतीजी पीछे से, आजू-बाजू से आते-जाते न नजर आए, बड़ा खराब लगता है।
इन सब प्रारम्भिक व्यवस्थाओं से आश्वस्त होने के बाद लाइव आने के एक-दो दिन पहले फेसबुक पर समय और विषय की सूचना के साथ लाइव आने की घोषणा कर दीजिये, ताकि अधिक से अधिक लोग आपसे तय समय पर जुड़ सकें। समय का चुनाव भी बड़ी होशियारी से करें ताकि उस समय तक आपके सारे श्रोता मित्र बर्तन-कपड़े-झाड़ू-पोंछा अर्थात गृहकार्य आदि से निवृत्त हो एकचित्त हो आपका लाइव आना एन्जॉय कर सकें।
करते-करते वह दिन और समय आ खड़ा हो जाएगा। लाइव शुरू हो जाएगा। शुरू के पाँच मिनट आरम्भ से हाजिर आठ-दस लोगों से यही पूछने और आश्वस्त होने में निकालिए कि,
"मेरी आवाज आ रही आपको?"
" क्या चेहरा ठीक दिख रहा है?,
अंधेरा तो नही लग रहा??" आदि आदि।
इन सबके बाद कछुए की चाल से एक के बाद एक लोग जुड़ते जाएंगे। कमेंट में मिलने वाले नमस्कार आदि का मुस्कुराहट के साथ प्रत्युत्तर देना शुरू कर दीजिए, उनके नाम पढ़ते जाइये। ऐसा करने से वह श्रोता खुश हो जाता है कि आपने व्यक्तिगत रूपसे उन पर ध्यान दिया है।
"कुछ और लोग आ जाएं तो शुरू करते हैं..."
घोषणा करें।
पाँच-सात मिनट और राह देखने के बाद वास्तविक लाइव शुरू करने समय आ गया है। विषय की भूमिका बनाने के बाद बाजू रखे कागज पर बिंदुवार लिखे मुद्दों को देखते हुए चर्चा आगे बढाते चलें। इस बीच कमेंट में आते प्रश्नों के जवाब, देर से आने वालों से नमस्कार चमत्कार करते रहें । इसी तरह धीरे धीरे चर्चा अपनी पूर्णता की ओर ले जाएं, कमेंट्स में प्राप्त प्रश्नों के उत्तर के लिए एवं आगामी चर्चा के लिए पुनः उपस्थित होने की घोषणा के साथ लाइव समाप्त करें और एक सफल लाइव पूर्ण करने पर चैन की सांस लें। बाद में आने वाले बधाईयों के फोन कॉल्स एवं कमेन्ट्स का जवाब देने के लिए अपने आप को तैयार करें ।
इस तरह एक फेसबुक लाइव व्रत सफल किया जाता है।
सचमुच, बड़े झंझट है लाइव आने में। फिर भी इस हेतु मैंने सारी तैयारी कर रखी थी, जैसा कि आप चित्र में देख रहे हैं, मेरे असिस्टेन्ट भी उपलब्ध साधनों से मेरे इस लाइव की प्रकाश व्यवस्था संभालने के लिए जी जान से जुटे हुए थे। किंतु हाय री किस्मत... बिजली को भी इसी समय जाना था। नेट के सिग्नल मिलना बंद हो गए, मोबाइल की बैटरी भी चार्ज नहीं है। सारी तैयारी धरी रह गई। मैं भी कैसा अनाड़ी, औरों को तैयारी को लेकर सिखा रहा हूँ और खुद ही फिसड्डी साबित हो गया। इसीलिए अब मैंने बहुत सोच समझ कर लाइव आने का इरादा त्याग दिया है और उसकी जगह यह पोस्ट लिख डाली है।
एक राज़ की बात यह भी थी कि मेरे पास लाइव करने लायक कोई विषय ही न था और उससे बड़ी बात, न तो मैं देखने में आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक हूँ और न ही मेरा स्वर और वक्तृत्वकला इतने प्रभावशाली है कि कोई लाइव सफल करा पाऊँ! इसलिये इस पोस्ट को ही मेरा फेसबुक लाइव समझ कर संतोष कर लीजिए।
धन्यवाद!
- लाइवानन्द!

Friday, May 22, 2020

एक रात की बात


                      एक रात की बात!

हिल स्टेशन की वह तूफानी शाम। जून माह का पहला सप्ताह, सनसनाती हवा चल रही थी। तेज हवा से पेड़ पौधे अपनी जगह पर लगातार हिल रहे थे। पत्तों की सरसराहट और तूफानी हवा की सांय सांय करती आवाज पूरे माहौल में गूँजती जा रही थी। धूल भरी आँधी चल रही थी। धूल के साथ सूखे पत्ते भी हवा में उड़ रहे थे। तभी आसमान में अचानक काले बादल छा गए। घना अंधेरा छाने लगा और बादलों में बिजलियाँ कड़कने लगीं। किसी भी पल बारिश शुरू होने के आसार नजर आ रहे थे।

इसी बीच इस हिलस्टेशन पर रास्ते से हटकर इंसानी बस्ती से काफी दूर स्थित वह बंगला नजर आ रहा था जो काफी पुराना और उतना ही वीरान लग रहा था। बंगले की यह अवस्था देख कर कोई भी सोच में पड़ सकता था कि कोई वहाँ रहता भी होगा या नहीं? उस बंगले से कुछ ही दूर स्थित वह संकरा मोड़ और मोड़ के पहले संकेतक लगा हुआ था, "खतरनाक मोड़, वाहन सावधानी से चलाएं"। ऐसी तूफानी पृष्ठभूमि पर वह बंगला और भी ज्यादा डरावना लग रहा था। तभी बिजली का भी जाना हुआ।

ठीक उसी समय बंगले के फाटक के आगे एक युवा युगल खड़ा हुआ था। शायद इस तूफानी रात में रुकने के लिए कोई आसरा ढूंढ रहा होगा। उस युगल के पुरुष ने बंगले के फाटक को हिलाकर बजाया। किन्तु हवा के इतने शोर के बीच अंदर से कुछ भी प्रतिक्रिया सुनाई न दी इसलिए वह दोनों फाटक धकेल कर अंदर प्रविष्ट हुए। जंग लगे फाटक को धकेलते हुए कुछ जोर तो लगाना पड़ा किन्तु करर्रर की आवाज के साथ फाटक खुल ही गया। अंदर प्रवेश कर उन्होंने बंगले के मुख्य प्रवेशद्वार पर हथेलियों से जोर से थपकियाँ दी।

कुछ ही देर में बंगले के आउटहाउस के कमरे से खड़बड़ाहट की आवाज सुनाई दी और कमरे का दरवाजा धीरे से खुलता गया। अंदर से एक बूढ़ा धीरे-धीरे बाहर आया और हाथ में थामी हुई लालटेन को युवक युवती के चेहरों तक उठाते हुए उनको देखा। कोई नवविवाहित जोड़ा मालूम होता था। हाथों में रची मेहंदी, चूड़ियां और कुछ गहने पहने लड़की स्पष्ट रूप से एक नई दुल्हन सी लग रही थी।

 उस घुप्प अंधेरे में उस बूढ़े को देख किसी का भी दिल डर से बैठ जाता, क्योंकि उसका हुलिया ही इतना भयानक था मानो किसी हॉरर फिल्म का पात्र हो। लम्बे बढ़े हुए खिचड़ी बाल, बेतरतीब दाढ़ी, लटकते होठों के बीच झलकते काले पड़ चुके दाँत, भेदती नजर, मैल से सराबोर, चीकट पड़ चुके कपड़े।

उंगलियों में पकड़ी बुझती आ रही बीड़ी को एक तरफ फेंकते हुए थरथराती आवाज में उसने पूछा,
"क्या बात है, क्या चाहिए?"

"बाबा, क्या रातभर के लिए हम यहाँ रुक सकते हैं? वो क्या है कि हमारी गाड़ी खराब हो गई है। बारिश शुरू हो चुकी है और बस्ती भी बहुत दूर है, वरना कोई मेकेनिक ले कर आ जाता। रातभर के लिए सोने की जगह मिल जाती तो...!"
उस युवक ने विनती करते हुए कहा।

"ठीक है, बंगले का कमरा खोल देता हूँ, चाहो तो रात भर रुक सकते हो।" कहते हुए बूढ़े की आँखों में एक चमक सी आ गई। 

"अच्छा हुआ आप लोग आ गए यहीं... पिछले हफ्ते ही एक आगे वाले मोड़ पर एक गाड़ी फिसलकर टकरा गई बरगद उस पेड़ से। उसी समय जान चली गई दोनों की, कोई नया जोड़ा था, शादी के बाद आया था घूमने यहाँ!"

अपने कमरे में जा कर बूढ़ा चाबियों का गुच्छा ले आया और प्रवेशद्वार का ताला खोला। एक कमरे में उन्हें लाकर मेज पर लालटेन रखते हुए कहा,
"यहाँ रात गुजार सकते हो आप दोनों, कमरा कुछ धूल से भरा है, बहुत दिनों बाद खुला है। लेकिन एक बात बता दूँ, खानेवाने के लिए कुछ नहीं मिलेगा, चाय भी नहीं। सुबह एक दूधवाला पावभर दूध दे कर जाता है, वो भी ख़त्म हो गया है। कल तुम्हारे लिए अलग से ले कर रखूगा, सुबह ही मिलेगी चाय।"

"कोई बात नहीं बाबा, अभी हमको खाने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है, सुबह भी आप तकलीफ मत करना।"

"सामान किधर है आप लोगों का?"

"गाड़ी में ही पड़ा हुआ है बाबा, अभी लेने जाऊंगा तो भीग जाऊंगा, बारिश बहुत तेज हो गई है। और उसकी अब जरूरत लगना भी नहीं है।"

"कोई बात नहीं, कीमती सामान होगा, ले आते तो अच्छा था... !"

"कौन ले जाएगा... लेकिन क्या आप अकेले रहते हो यहाँ ?"

"हाँ भाई, अकेला ही हूँ, मेरे अलावा कोई नहीं रहता यहाँ इस वीरान जगह में। इस बंगले के मालिक परदेस में रहा करते हैं, आ जाते हैं तीन-चार साल में कभी। दे जाते हैं कुछ रकम मेरी जरूरत के हिसाब से। बहुत पुराने समय से रखवाली जो करता आ रहा हूँ। लेकिन आप जरा संभल कर रहना। रात में कुछ चमगादड़-उल्लुओं का हंगामा होता रहता है तो घबराना मत। जाओ, आप तो जाओ ... सो जाओ।"
कहते हुए बाबा अपने कमरे की ओर निकल गया। 

कोई उसे उस समय देखता तो शायद कुटिलता से मुस्काते हुए पाता। लेकिन उस जोड़े ने इस बात पर कोई खास ध्यान नहीं दिया। कमरे का दरवाजा बंद हुआ और अंदर से दोनों की खुशी से भरी हँसी की आवाज बाहर सुनाई दी।

अब अंधेरा बहुत गहरा गया था। हाथ को हाथ नहीं सुझाई दे रहा था। बारिश अपने पूरे जोर पर थी। बीच बीच में जो बिजली कड़क रही थी उतनी ही देर का उजाला हो जाता था। घण्टेभर जोरदार बरसने के बाद अब बरसात धीरे-धीरे धीमी होती जा रही थी और अंततः बन्द भी हो गई। इतनी देर तक चल रहा बारिश का शोर भी पूर्णतः बन्द हो गया। सब दूर एक सन्नाटा छाया हुआ था। रात के कीड़ों के अतिरिक्त कोई भी आवाज अब नहीं सुनाई पड़ रही थी।

आधी रात हो चुकी थी, या और भी अधिक समय गुजर गया होगा। अंधेरे में एक दरवाजे के खुलने की आवाज आई। दो मिनट बाद ही एक दूसरे दरवाजे को जोर जबरी से धकेल कर खोला गया है ऐसा लगा। कुछ देर में एक जोरदार चीख की आवाज वहाँ गूंजी और पुनः शांति छा गई। दूर तक किसीने वह चीख सुनी हो इसकी संभावना नगण्य थी, और सुनी भी होती तो कोई दौड़कर वहाँ तक आने वाला नहीं था। अपने कमरे तक जाने के कदमों की आवाज के बाद कमरे का दरवाजा बंद हो गया, और गहरा सन्नाटा छा गया। क्या हुआ होगा इस दर्मियान? कुछ अनहोनी तो नहीं हुई थी? 

रात बीत गई, सुबह हो गई। हमेशा के समय पर दूधवाला फाटक पर आ कर खड़ा हुआ और बाबा को आवाज दी। लेकिन अंदर से कोई भी जवाब नहीं मिला। इसलिए वह फाटक धकेलकर बाबा के कमरे तक पहुँचा तो एक भयानक दृश्य देख कर काँप उठा। कमरे का दरवाजा खुला पड़ा था। बाबा अंदर मरा हुआ पड़ा था, उसकी आँखें और जुबान निकल कर बाहर आ गई थी मानो किसी ने गला दबाकर मार डाला हो। दूधवाला घबराकर बाहर की ओर दौड़ पड़ा और अपनी सायकल उठा गाँव की तरफ तेजी से चल दिया और पुलिस स्टेशन जा कर घटना की खबर की।

कुछ ही देर बाद पुलिस की गाड़ी घटना स्थल पे पहुँच गई। अधिकारियों ने शव देख कर जाँच शुरू की। बंगले के सारे कमरे खोल-खोल कर देख डाले। सारे कमरे धूल से भरे हुए थे, केवल एक कमरे में बिस्तर की चादर कुछ बेतरतीब ढंग से फैली पड़ी थी। न कोई निशान न तो कोई अन्य सुराग। जाँच पूरी कर चौकीदार का शव एम्बुलेंस में रख पुलिस की गाड़ियाँ वहाँ से रवाना हो गईं।

पुलिस जीप और एम्बुलेंस के जाते ही बंगले के हॉल में एकाएक हँस कर खिलखिलाने की आवाज गूंज उठी। 
"अब से हम दोनों ही का राज है यहाँ। कार एक्सीडेंट के बाद उस बरगद के पेड़ पर बैठ आठ दिन बड़ी मुश्किल से काटे हैं। आखिर कितने दिन ऐसे निकालते हम? कल रात उस बाबा का काँटा भी हमने दूर कर दिया। अब इस बंगले में केवल हम दोनों...तुम और मैं!" वह युवक अपनी जोड़ीदार युवती से कह रहा था ।

तभी उस युवक के कंधे पर किसी ने हाथ रखा और थरथराती आवाज में पूछा,
"मैं भी अगर तुम दोनों के साथ रहूँ ... कोई हर्ज तो नहीं ?"

युवक ने पीछे मुड़कर देखा....वही कल वाला बाबा पीछे खड़ा हुआ था जिसके प्राण कल रात उसने लिये थे।

- विवेक भावसार

Monday, May 18, 2020

अघटित

अघटित

एका हिल स्टेशनवरची ती वादळी संध्याकाळ, जून महिन्याचा पहिला आठवडा, सुसाट वारा घोंघावत होता. वाऱ्यामुळे झाडे-झुडपे जोरजोरात हलत होती. पानांची सळसळ आणि बेभान वाऱ्याचा आवाज वातावरणात घुसमळत होता. आकाशात अचानक काळे ढग गोळा झाले होते. अंधार होत आलेला आणि त्यात विजाही कडकडू लागल्या होत्या. कोणत्याही क्षणी पाऊस पडायला सुरवात होईल अशी परिस्थिति झालेली होती. 

डोंगराच्या वळणावर एका बाजूला लोकवस्तीपासून बराच दूर असलेला तो बंगला फार जुना असून तेवढाच भयाण वाटत होता. कोणी तेथे रहात असेल अशी शक्यताही त्या बंगल्याची अवस्था पाहून वाटत नव्हती. त्याच्या समोरुन जाणाऱ्या रस्त्याचे धोकादायक वळण, "अपघाती जागा- सावधपणे वाहने चालवा" अशी पाटी असलेल्या पार्श्वभूमिवर तर तो बंगला जास्तीच भेसूर दिसत होता. अशातच लाईट गेलेले. त्याच वेळी बंगल्याच्या फाटकासमोर एक नवविवाहित असावे असे एक जोडपे उभे होते. बहुतेक आश्रय घेण्याच्या आशेने आले असावे असे वाटत होते.

जोडप्यातल्या पुरुषाने त्या बंगल्याचे फाटक वाजवले. पण आतून काही प्रतिसाद आला नाही. म्हणून ते दोघे फाटक ढकलून आत शिरले. गंजलेले फाटक ढकलण्यासाठी नाही म्हटले तरी थोडा जोर लावावाच लागला. कर्रर्र आवाज करत फाटक उघडले. आत शिरून त्यांनी बंगल्याच्या मुख्य प्रवेशद्वारावर जोरदार थाप दिली. काही वेळाने बंगल्याच्या बाजुला असलेल्या आउटहाऊसमधल्या खोलीतून काही खुडबुड ऐकू आली आणि खोलीचे दार हळू हळू उघडले गेले. आतून एक म्हातारा संथपणे बाहेर आला व त्याने हातातला कंदील उंच करून जोडप्याच्या चेहऱ्यांवर धरला. त्याला पाहून कोणालाही थरकापच भरला असता, कारण त्या बाबाचा एकूण अवतारच तसा होता. एखाद्या भयपटात दाखवतात तसाच एकंदरीत अवतार होता. घनदाट वाढलेल्या काळ्या पांढऱ्या केसांच्या जटा, अस्ताव्यस्त वाढलेली दाढी, खोल गेलेले डोळे, पिचकलेले गाल, लोम्बत्या ओठातून दिसणारे दोन चार काळे पडलेले दात, घामाने कळकट्ट मेणचट झालेले कपडे. एकूण अश्या अंधारात ते ध्यान कोणाच्याही मनात धडकी भरवणारेच होते.
हातातली विझत आलेली वीडी खाली फेकत थरथरत्या आवाजात त्याने विचारले, "काय पायजे?"

"बाबा, आम्हाला रात्रभर रहायला जागा मिळेल का? आमची गाडी खाली बन्द पडली आहे आणि पाऊस सुरु झालेला आहे. वस्ती पण दूर आहे, तर इकडे रात्र काढायला जागा मिळाली तर बरे होईल."
तरुणाने पुढाकार घेत विचारले.

"ठीक हाये, बंगल्याची खोली उघडून देतो तुम्हास्नी, तुम्ही रव्हा पायजे तर रातभर" एक भेदक नजरेने बघत तो म्हातारा बोलला. "आन बरे झाले तुम्ही आला इकडे, मागल्याच आठवड्यात खालच्या वळणावर एक गाड़ी गेलं घसरत की हो त्या वडाच्या झाडावर, जागच्या जागी ठार झाले त्यातलं नवं जोडपं म्हनं."

आपल्या खोलीत जाऊन त्याने किल्ल्यांचा जुडगा आणला आणि बंगल्याचे मुख्य दार उघडून दिले, हातातला कंदील एका खोलीतल्या टेबलावर ठेवत म्हणाला, "इथे रात काढू शकता तुमी, खोली थोड़ी घान हाये, लइ दिवसानी उघडली हाये.  पन एक सांगतो, खायला बियला काही भेटनार न्हाई. अगदी चहा बी न्हाई, सकाळी एक गवळी पावशेर दूध देऊन जातो तेवढेच असते. ते बी संपल्याले हाये. आता सकाळीच मिळेल चहा."

"चालेल हो बाबा, आम्हाला खायला काही लागणार नाही, तुम्ही काळजी करु नका."

"सामान कुठं हाय व्हय तुमचे?"

"बाबा, गाडीमधेच आहे, आता आणायला गेलो तर भिजून जाऊ, पडू दे तिथेच. आता काही गरज पडेल असे वाटत नाही."

"बरं बरं, आनलं असतं तर बरं झालं असतं !"

"एकटेच असता का दादा?"

"होय रे बाबा, कोण नाही माज्या बिगर इथे, आमचे घरमालक भाईर देशात असत्यात, चार पाच सालात येतात कंदीतरी. मला ठेवलेला हाये राखण करायला. पन तुम्ही सम्भालून असा बर कां, जावा आता झोपा जाऊन. रात्रीचे पाखरू घुबड जरा धींगाना घालत्यात, तवा घाबरू नकासा"

म्हणत म्हातारा ओठ तिरके करत एक कुटिलसे स्मित करत होता असे एखाद्याला त्यावेळी पाहतांना वाटले असते. पण त्या जोडप्याने त्याकडे लक्ष दिले नाही. दार लावून ते आत बन्द झाले. त्यांचा आनंदाने  हसण्याचा आवाज बाहेर ऐकू आला.

अंधार आता गहिरा झाला होता, मिट्ट काळोख पडला, हाताला हात नाही दिसणार अशी परिस्थिति होती. पावसाने जोर धरला होता. अधुन मधून विजा कडाडत होत्या, तेवढाच काय तो उजेड पडायचा. अर्धा तास जोरदारपणे पडून पाऊस आता हळू हळू मंद होत चालला आणि शेवटी बन्दही पडला. इतका वेळ येणारा पावसाचा आवाजही बन्द झाला होता. सगळीकडे भयाण शांतता पसरलेली होती. रातकिड्यांच्या आवाजाव्यतिरिक्त कुठलाही आवाज आता ऐकू येत नव्हता. 

मध्यरात्रीची वेळ झाली असावी बहुधा. अंधारात दार उघडल्याचा आवाज आला, दोनच मिनिटांनी दूसरे एखादे दार ढकलून उघडण्यात आले असावे असे वाटले. काही वेळाने एक जोरदार किंकाळीचा आवाज आसमंतात घुमला आणि परत शांतता पसरली. दूरपर्यंत ती किंकाळी कोणी ऐकली असेल याची अजिबात शक्यता वाटत नव्हती, आणि ऐकली असती तरी लगेच कोणी धावत येणार नव्हते. परत खोलीच्या दारापर्यंत चालण्याचा आवाज आला आणि खोलीचे दार बन्द झाले आणि गुप्प शांतता पसरली. काय घडले असेल तेथे, काही अघटित घडले असेल काय?

रात्र संपून सकाळ उजाडली, नेहमी प्रमाणे सकाळी दूध देणारा गवळी आला आणि फाटकातूनच दुधासाठी आवाज दिला. पण आतून प्रतिसाद आला नाही, म्हणून तो फाटक ढकलून आउटहाऊसच्या खोलीपर्यंत आत गेला तर एक भयानक दृश्य त्याच्या नजरेस पडले. ते पाहून त्याचा थरकाप उडाला.
बंगल्याचा तो म्हातारा राखणदार त्याच्या खोलीत मरून पडलेला होता. त्याची बुबुळे आणि जीभ बाहेर आलेली होती जणु कोणी गळा दाबून त्याला मारण्यात आले होते. ते पाहून गवळी घाबरून बाहेर पळाला व गावात जाऊन पोलिसांना त्याची वर्दी दिली. 

काही वेळातच पोलिसांची जीप येऊन थडकली. अधिकाऱ्यांनी खोलीत येऊन प्रेत पाहिले. नंतर बंगल्यात शिरून सगळ्या खोल्या तपासल्या. एका खोलीतील बेडवरच्या विस्कटलेल्या चादरी शिवाय काहीच विशेष लक्ष देण्यासारखे दिसले नाही. सगळ्या खोल्या धूळीने माखलेल्या होत्या. निरीक्षण झाल्यावर राखणदाराचे प्रेत अम्ब्युलेन्स मधे घालून नेण्यात आले.

पोलिस गाडी आणि अम्ब्युलेन्स निघुन जाताच बंगल्याच्या हॉलमध्ये खिदळण्याचा आवाज आला. 
"आता इथे आपले दोघांचेच राज्य. अपघातानंतर गेले आठवडाभर त्या झाडाच्या फांद्यांवर बसून दिवस काढत कंटाळलो होतो. किती दिवस असे काढणार? त्या बाबाचा अडसर ही आपण दूर केला काल रात्री. आता या बंगल्यात आपण दोघेच, फक्त तू आणि मी." जोडप्यातील पुरुष तिला सांगत होता. तितक्यात त्याच्या खांद्याला मागून कोणी हाताने शिवले आणि थरथरत्या आवाजात विचारले, " मी बी तुमच्या संगट राह्यलो तर चालंल का रे बाबांनो"
त्याने मागे वळून पाहिले तर मागे तोच कालचा म्हातारा बाबा उभा होता.

-विवेक भावसार

Friday, May 8, 2020

दस मिनट की समाधि


दस मिनट की समाधि

कल की ही बात है, रिमोट की सहायता से टीवी पर चैनल to चैनल कुदावनी गेम (सर्फिंग) खेलते हुए एक फिल्मी चैनल पर गाड़ी अटक गई। फ़िल्म शुरू हो चुकी है। फ़िल्म का आधा टाइटल निकल चुका है, आखरी के कुछ नाम जाने पहचाने लगे। गीत मजरूह सुल्तानपुरी, संगीत आर डी बर्मन, निर्देशक प्रकाश मेहरा। टाइटल समाप्त। स्क्रीन के कोने में बारीक अक्षरों में फ़िल्म का नाम उभरा- #समाधि। ये नाम पढ़ते ही एक गाना दिमाग में चुभ गया.. "कांटा लगा"। (लेकिन ये हिट गाना फिलीम की स्टार्टिंग की शुरुआत में ही आ जायेगा ये सोचा भी नहीं था। )

पेहला सीन-
फ़िल्म की हिरोइन गली भर में अपने घर होने वाले शाम के जलसे का अपने मुंह से बोलकर मौखिक न्योता देती फिर रही है, अवसर है माँ बनने की उम्र की हिरोइन को नवजात चचेरा भाई होने का। इस बीच हीरोइन अपने हीरोइन स्टेटस का ख्याल रखते हुए गली में छेड़ने वाले एक लड़के को खटिया से गिराए भी दे रही है।

अगला सीन-
रात का टेम, गांव की सारी पब्लिक बड़े चौक में गोला बना के बैठी है, हैसियत के हिसाब से मर्दों ने पगड़ी, टोपी धोती, पजामा आदि पेन के खटिया, कुर्सी सम्भाल रखी है, लेडीजों का वर्ग एक तरफ ग्राउंड की जमीन पर तशरीफ़ टिका कर बैठा है।

गैस बत्ती की तेज रोशनी की लाइट में अपने भाई के पैदा होने के अवसर पर हीरोइन का "रिकार्ड एक्शन"  पे ग्रुप डांस। (पूरा रियलिटी शो का माहौल, दिनभर डांस की 12-15 सहेलियों संग तैयारी के बाद डांस चल्लू ) गाना है... "कांटा लगा... हाय लगा... बंगले के पीछे, तेरी बेरी के नीचे.. हाय रे पिया" (पहली बार ये गाना स्क्रीन पर देखा, लेकिन इस सिचुएशन की कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी) 

गाना खत्म होते ही गांव में घुड़सवार डाकूओं के दल का प्रवेश (अच्छा हुआ, गाना पूरा होने दिया, वरना गाना अधूरा रह जाता और डांस शो भी अधूरा रह जाता, धन्यवाद आपका डाकू दल उचित समय पर आने के लिए)। आते ही ध्धांय... ध्धांय... ध्धांय ... दम्बूक से तीन गोली गैस बत्ती पर बर्बाद कर दी है (बर्बाद इसलिए कि, जो काम एक डंडे की सहायता से हो सकता था, उसके लिए तीन गोली खर्च कर दी, उनके बाप का क्या जाता) खैर.. डाकूओं द्वारा डाकू धर्म निभाते हुए बत्ती फोड़ कर बन्द कर दी जाती है। उसके बाद टॉर्च की रोशनी में गहनों की लूटपाट शुरू। (जब टॉर्च ही जलानी थी तो गैस बत्ती क्यो फोड़ी? समझ के बाहर की बात ) नायक डाकू है। लूटपाट करते हुए हीरोइन तक आता है, हिरोइन गहने उतार कर देने को होती है। नायक कहता है, "तुम गहने पहने रख।" इसके बाद बाकी के गहनों पर कब्जा कर डाकू दल और हीरोइन के गहनों को हीरोइन समेत कब्जा कर नायक घोड़े पर बिठा कर चल देता है।

बस यही तक समाधि लगा पाया और चैनल बदल डाला।

(मन में उठती लघु और दीर्घ शंकाओं को कोष्ठक में दर्शाने का प्रयास किया गया है। इसके बिना भी पोस्ट ग्रहण की जा सकती है।)

#ग्रेट फिल्म्स... ग्रेट लॉजिक्स...ग्रेट लोग्स!

-विवेक भावसार

Wednesday, April 29, 2020

फोटोफ्रेम

शरदराव आज जरा जास्तच खुशीत घरी परतले. बऱ्याच दिवसांपासून मनात भरलेली एक फोटोफ्रेम जुन्या बाजारातून त्यांनी मिळवली होती. शरदरावांना जुन्या वस्तु जमविण्याचा छंद होता. अशा अनेक वस्तू त्यांनी जमा केल्या होत्या. त्यासाठी ते ऑफिस मधून घरी परततांना मुद्दाम जुन्या बाजारात दोन-चार दिवसात एक तरी चक्कर टाकत. अशाच वेळी त्यांना ती धातुची नक्षीदार फ्रेम आढळली. जरी तिच्यावर मळ, घाण साचलेली होती तरी स्वच्छ झल्यावर सुंदर दिसेल हे त्यांनी हेरले होते. थोड़ी घासाघीस करून शेवटी ती फ्रेम त्यांनी स्वस्तात मिळवलीच.

शबनम मधून फ्रेम टेबलावर काढून ठेवत ते न्हाणीघरात शिरले, कपड़े बदलून, हात पाय धुवून ते स्वयंपाकाच्या तयारीला लागले. शरदराव त्यांची पत्नी देवघरी गेल्यापासून एकटेच त्या फ्लॅट मध्ये रहात असत. त्यांच्या मुलीचे म्हणजे शुभाचे लग्न दीड वर्षापूर्वीच झाले होते, आणि त्या नंतर काहीच दिवसांनी त्यांच्या पत्नीचे निधन झाले. ते आता तेथे राहणारे एकटेच उरले होते.

स्वयंपाक उरकून जेवण आटोपून त्यांनी आज खरेदी केलेली फ्रेम हातात घेऊन निरीक्षण करायला सुरवात केली. विदेशी बनावटीची ती फ्रेम निदान 70-80 वर्षापूर्वीची तरी असावी किंवा त्याहून ही जुनी असावी असा अंदाज त्यांनी बांधला. फ्रेम मधला सडका पुट्ठा काढून त्यांनी वेगळा केला, फुटकी काचही बाहेर काढून कचरा पेटीत टाकली. त्या धातुच्या फ्रेमला पीताम्बरीने घासुन तिच्यावरचा मळ आणि बुरसटलेली घाण स्वच्छ केली. फ्रेमची रंगत आता काही औरच दिसु लागली. अगदी नव्या फ्रेम सारखी, चकचकीत.

दुसऱ्या दिवशी ऑफिसची सुटीच होती. तिचा फायदा घेत बाजारात जाऊन एक फोटोफ्रेमवाल्या कडून त्यांनी फ्रेमची काच आणि मागला पुट्ठा बसवून घेतला.
घरी येवून त्यात कोणाचा फोटो टाकावा याचा विचार करु लागले. तितक्यात त्यांना शेजारील फ्लॅट मधल्या प्रणिताचा फोटो ड्रावरमधे ठेवलेला आठवला. अगदी बरोबर फिट होत होता फ्रेम मधे. प्रणिता...पाचवीत शिकणारी हुशार, गोड व चुणचुणित, शरदरावांची अगदी लाडकी होती, शेजारचे रानडे यांची मुलगी. फावल्या वेळेत शाळा सुटल्यावर ती शरदकाकांकडे येऊन बसत असे. गप्पा आणि खाऊची मजा बऱ्याच वेळ चालत असे. 

प्राणिताचा फोटो फिट करून शरदरावांनी फ्रेम आपल्या पलंगाशेजारच्या टेबलावर मांडून ठेवली व रात्री नेहमीच्या ठराविक वेळी झोपी गेले. उशीरा रात्री त्यांना एकाएक गलबलाट ऐकू आला व झोप चाळवली गेली. रस्त्यावर लोकांची काही गडबड चालली असेल असा विचार करून त्यांनी कूस बदलली आणि त्यांचे लक्ष त्या नव्याने आणलेल्या फ्रेमकडे गेले. अंधारात एखाद्या टीव्हीत चालावे असे दृश्य त्यात दिसत होते. एका सभागृहात घोषणा होत होती... "आजच्या भाषण प्रतियोगितेची पहिल्या क्रमांकाची विजेती आहे..प्रणिता रानडे" आणि त्यानंतर टाळ्यांच्या गजरात प्रणिता ने बक्षीस घेतले आणि फोटो फ्रेम मधले ते दृश्य दिसायचे बन्द झाले आणि अंधार झाला. 

ते पाहून शरदराव आश्चर्य चकित झाले, बराच वेळ त्यांना काही सुचेनासे झाले. फ्रेममधले ते आश्चर्यजनक दृश्य सारखे त्यांच्या डोळ्या पुढे तरळत राहिले. भास होता, स्वप्न होते कि खरेच तसे काही घडले याचा विचार करत करत नंतर केव्हां तरी बऱ्याच उशीरा त्यांना झोप लागली. सकाळी दारावर पडणाऱ्या थापेच्या आवाजाने त्यांना जाग आली. दार उघडून पाहिले तर शाळेच्या गणवेशात प्रणिता दारासमोर उभी होती. तिने लगेच पाया पड़त शरदरावांना म्हटले,  "काका आशीर्वाद द्या, आज शाळेत भाषण स्पर्धा आहे, मी ही भाग घेतलाय."
शरदरावांना लख्खकन काल रात्रीचा प्रसंग आठवला. ते म्हणाले, "बेटा पहिला नम्बर मिळवणार आहेस बरं कां. संध्याकाळी येतोय मिठाई खायला."
"काय काका... माझी तयारी ही झाली नाहीये व्यवस्थित"
"काही काळजी करु नको ग, नम्बर तुझाच येणार"
रात्री पाहिलेल्या स्वप्नाच्या त्या दृष्याच्या बळावर शरदराव बोलून गेले.

प्रणिता शाळेत निघुन गेली आणि इकडे शरदराव नेहमीच्या दिनचर्ये प्रमाणे त्यांच्या वेळेवर ऑफिसला निघुन गेले. संध्याकाळी घरी परत येताच दार उघडायच्या आधीच प्रणिता हजर होती. 
"काका, चला माझ्या घरी. तुम्हाला आनंदाची बातमी सांगायची आहे."
शरदराव रानडे यांच्या घरात शिरले. प्रणिता मिठाईची बशी पुढे करत म्हणाली
"काका, तुम्ही म्हटल्या प्रमाणेच झाले, भाषण स्पर्धेत माझा पहिला क्रमांक आला, हे बघा माझे बक्षीस."
शरदराव चकित झाले, रात्रीच्या दृष्यात पाहिलेले बक्षीस हुबेहुब असेच होते, म्हणजे हा एक योगायोग होता की काय? कि प्रीइन्ट्यूशन म्हणतात तसला प्रकार??

शरदरावांचे डोके थोड़े गरगरु लागले, पण स्वतःला साम्भाळत नाश्ता-चहा आटोपून ते घरात आले. आता त्यांना फ्रेमची पुनर्परीक्षा घ्यायची होती. रात्री झोपायच्या आधी त्यांनी फ्रेम मधला फोटो बदलून दुसरा फोटो लावायचे ठरविले व एका वरिष्ठ सिनेनटाचा फोटो मासिकातून कापला आणि फ्रेम मधे फिट केला. आज रात्री काय होते याची उत्सुकता त्यांना लागली होती. 

रात्री उशीरा तोच प्रकार घडला, फ्रेममधे चलचित्रांची मालिका सुरु झाली. त्या प्रसिद्ध नटावर एका नटी ने शूटिंगच्या वेळी गैरवर्तन केल्याचा आरोप केला गेला होता आणि तो नट समाचार वाहिनीच्या पत्रकारांसमोर स्वतःला निर्दोष म्हणून आपली कैफियत मांडण्याचा प्रयत्न करता होता. एक दीड मिनिटात एवढे दृश्य चालल्यावर ते दृश्य विरुन गेले.

शरदरावही त्या सज्जन स्वभावाच्या नटाच्या वर्तनावर केल्या गेलेल्या आरोपावर आश्चर्य करत झोपी गेले.
पुढील तीन चार दिवस उत्सुकतेने टीव्हीवर त्या बातमीची वाट पहात राहिले, पण तशी बातमी इतक्या दिवसात काही त्यांना बघायला मिळाली नाही. त्यामुळे प्रणिताच्या बक्षीसाची गोष्ट योगायोग समजून सोडून दिली. एव्हाना तो फोटो फ्रेम मधे तसाच लागलेला राहून गेला.

पुढच्या रविवारी दुपारी शरदराव चहा घेत टीवी समोर बसले होते. तितक्यात एक बातमी झळकली. त्यात तोच नट स्वतःविषयी सफाई देत होता. जे दृश्य शरदरावांनी त्या रात्री पाहिले होते ते जसेच्या तसे समोर परत घडत होते. आता मात्र शरदराव हबकले. म्हणजे ती "फोटोफ्रेम , जिचा फोटो लावलेला असेल तिच्या भविष्यतील घटनेची चाहूल देत असते हे खरेच !"

आता मात्र हे सारे योगायोग नसून फोटोफ्रेमचीच किमया आहे हे ते समजून चुकले, पण बराच विचार करून याचा उल्लेख कोणासमोरही करायचा नाही हेही मनोमन पक्के ठरवले. कारण कोणीही त्यावर सहजासहजी विश्वास ठेवला नसता किंवा तिचा गैरवापर होण्याचीही शक्यता होती. तरीही पुन्हा एकदा फ्रेमच्या चमत्काराची खात्री करण्यासाठी त्यांनी सध्या फारश्या प्रसिध्द नसलेल्या एका क्रिकेट खेळाडुचा फोटो शोधून फ्रेममध्ये बसवला. पूर्वीसारखाच प्रकार त्या रात्री पुन्हा घडला. त्या खेळाडूने क्रिकेटच्या सामन्यात शंभर धावांची खेळी पूर्ण केली म्हणून मैदानात जल्लोष होत असलेला फ्रेम मधे शरदरावांनी पाहिला.

काही दिवसांनी दोन देशांमध्ये चालत असलेल्या क्रिकेटच्या वन डे सीरीज मध्ये पदार्पण सामन्यातच एका नवीन खेळाडूने शतक झळकवायची कामगिरी दाखविल्याचे फोटो वर्तमान पत्रात सविस्तर बातमीसकट प्रकाशित झाले. त्यात छापला गेलेला खेळाडूचा फोटो काही दिवसांपूर्वी रात्री पाहिलेल्या दृष्यातलाच भाग होता. आता मात्र शरदरावांना पूर्णच खात्री झाली कि ती फोटोफ्रेम चमत्कारी असून ती भविष्यातील एखाद्या घटनेचा संकेत करते.

शरदरावांनी त्यानंतर अनेक वेळा फोटो बदलून फ्रेमच्या चमत्कृतिचा पडताळा घेतला. निरनिराळ्या फोटोंना बसवून फ्रेमची परीक्षा घेतली. पण स्वतःचा फोटो लावून पाहण्याची हिम्मत झाली नाही, न जाणो काय अनपेक्षित समोर येऊन उभे ठाकेल ते. 

इतक्यात प्रणिताची वार्षिक परीक्षा जवळ आली होती. प्राणिताबद्दल काही समजेल या दृष्टीने शरदरावांनी तिचा फोटो पुन्हा फ्रेममध्ये बसवला. त्या रात्री उत्सुकतेने वाट बघत राहिले. शेवटी तो क्षण आला आणि ती फ्रेम उजळली. प्रणिता दोन विषयात सोडून सर्व विषयात नापास झालेले प्रगति पुस्तक त्यात दिसले. शरदरावांना या वेळी फ्रेमकडून काही चूक झाल्याची खात्री पटली, कारण प्रणितासारखी हुशार मुलगी जिचा नेहमी पहिल्या पाचात नम्बर असे ती नापास होणे शक्यच नव्हते.

करत करत प्रणिताची परीक्षा डोक्यावर येऊन ठेपली.  मराठी भाषेचा पहिला पेपर तिने उत्तमरित्या सोडवला होता. पुढचा पेपर सायन्सचा होता, तो ही पेपर प्रणिताने छान सोडवला होता. प्रणिता चे पेपर चांगले जात असल्याचे पाहून शरदरावांना समाधान वाटत होते. तिसरा पेपर इतिहास भूगोलाचा होता. नेहमीप्रमाने आजही परिक्षेला जातांना ती शरदरावांच्या पाया पडून गेली. संध्याकाळी शरदराव ऑफिसातून आल्यावर प्राणिताकडे पेपरची चौकशी करायला गेले. तर प्रणिता तापाने फणफणत पडून असल्याचे समजले. पेपर लिहिता लिहिताच तिला अचानक ताप चढून आल्याचे समजले. पेपर तसाच अर्धवट टाकून ती घरी परतली होती. शरदरावांच्या मनात शंकेची पाल चुकचुकली. त्यांना तिच्या पुढच्या पेपर्सची काळजी वाटू लागली. तसेच घडले. प्रणिताला टायफाइडमुळे पुढचा एकही पेपर देता आला नाही.

शरदरावांना त्या फ्रेमचा रागच आला, जणु काही ही त्या फ्रेमचीच चूक होती. फ्रेममधला फोटो काढून ती रिकामी फ्रेम त्यांनी कपाटात ठेवून दिली. बरेच दिवस झाले, ती फ्रेमची आठवण त्यांच्या मनात पुसट होत गेली.

खूप दिवसांनी आज शरदराव जाम खुश होते. त्यांची मुलगी शुभा उद्या म्हणजे रविवारी आठवडाभरासाठी रहायला येणार होती. तशी ती महिना दोन महिन्यात भेटून जात असे, पण फारच थोड्या वेळासाठी. यावेळी ती जास्त दिवस मुक्काम करणार होती, म्हणून शरदरावांनी भरपूर भाज्या, फळे, स्वीट्स वगैरे आणून फ्रिज भरून टाकला होता. 

रविवार उजाडला, शरदराव बालकनीत बसून बराच वेळेपासून शुभाची वाट पहात होते. खाली रस्त्यावर एक रिक्शा येऊन उभी राहिली. त्यामधून शुभाला उतरतांना त्यांनी बघितले. शरदराव लगेच खाली उतरले, तेवढ्यात शुभाने आपली कपड्यांची एयरबॅग उतरून घेतली होती. 

"काय गं, एकटीच आलीस? जावईबापू नाही आले? मला वाटलं होतं, ते येतील तुला सोडायला."
"नाही, ते कंपनीच्या कामाने टूरवर गेलेत दहा बारा दिवसांसाठी, म्हणून तर मला वेळ मिळाला इतक्या दिवसांसाठी इकडे यायला." 
"चला वर जाऊया" म्हणत शरदरावांनी बॅग उचलली आणि वर निघाले. 

घरात येऊन बॅग जागेवर ठेवली आणि स्वतः चहा करायला घेतला. चहा झाल्यावर काही वेळ हालहवाल विचारपूस करून शरदराव म्हणाले "आलो मी इतक्यात, "आस्वाद"मधून  लंचपॅक घेऊन येतो, आल्या आल्या तू स्वयंपाकाला नको लागू"

दुपारचे जेवण आटोपून आराम झाला. संध्याकाळचा चहा घेत शुभा म्हणाली, "बाबा, घर थोड़े आवरून घ्यायला पाहिजे, खूप दिवस झालेत, कानेकोपरे स्वच्छ झाले नाहियेत. उद्या तुम्ही ऑफिसला गेल्यावर करते मी."
"बरं, तुला वाटेल तसं कर, मला याकरता घरात फार वेळ देता येत नाही नि तेवढी मेहनतही होत नाही."

पुढल्या दिवशी शरदराव ऑफिसला गेले आणि शुभाने दुपारी घर आवरायला घेतले. स्वयंपाकघर, बैठकीची खोली आवरून झाल्यावर तिने बेडरूमकडे मोर्चा वळवला. टेबल, खुर्ची, बेड व्यवस्थित केले आणि कपाट आवरायला घेतले. पुस्तकं व इतर साहित्य पुसून झटकून पुन्हा नीट रचून ठेवतानांच ती रिकामी फोटोफ्रेम तिच्या हाताला लागली. इतकी सुंदर फ्रेम पाहून ती हरखुन गेली. तिला छान पुसून काढले. इतकी सुंदर फ्रेम रिकामी कशी ठेवलेली म्हणून तिने स्वतःचाच लहानपणाचा एक फोटो अल्बम मधून काढून त्यात बसवला आणि ती फ्रेम टेबलावर ठेऊन दिली.

संध्याकाळी शरदराव ऑफिसतून लवकरच परतले. चहा-नाश्ता घेऊन बराच वेळ शुभाबरोबर गप्पा मारत बसले. नंतर शुभाने रात्रीचा स्वयंपाक तयार केला. दोघांनी जेवण केले. शरदराव आपल्या खोलीत झोपायला गेले. मात्र टेबलावरील फोटो घातलेल्या फ्रेमकडे त्यांचे लक्ष गेले नाही. रात्री उशीरा कोणाच्या तरी हम्बरडा फोडून रडण्याच्या आवाजाने त्यांची झोप मोडली. आवाज ओळखीचा वाटत होता. आवाजाच्या दिशेने त्यांनी पाहिले तेव्हा टेबलावरील फ्रेमकडे त्यांचे लक्ष गेले. त्यात शुभा जोरजोराने रडत असतांना दिसत होती. दहा वीस सेकंदाने चित्र दिसेनासे झाले. शरदराव शहारून उठले. फ्रेमबद्दल एक भयमिश्रित चीड त्यांना आली. त्याच क्षणी तिचा निकाल लवकरात लवकर लावायचा त्यांनी विचार केला. पण इतक्यात पाहिलेल्या दृष्याने उत्पन्न बेचैनी मुळे रात्रभर ते झोपू शकले नाहीत. पहाटे उशीरा केव्हां तरी त्यांचा डोळा लागला.

सकाळी उठताच तोंड वगैरे धुवून, चहा घेताच एक निर्धार करून ते उठले. टेबलावरची फ्रेम उचलून शबनम मधे ठेवली आणि शुभाला "आलोच अर्ध्या तासात" म्हणून घराबाहेर पडले. चालत चालत ते नदीवरच्या पुलाच्या मध्यावर येऊन उभे राहिले. खांद्यावरची शबनम उतरून त्यातली फ्रेम बाहेर काढली आणि हात उगारून जोराने नदीच्या पात्रात फेकायला गेले आणि तेव्हाच तोल जाऊन रस्त्यावर उताणे पडले.... पण... पण तितक्यात एक ट्रक धडधडत मागून आला आणि त्यांना चिरडून पुढे निघून गेला.

- विवेक भावसार

Wednesday, April 22, 2020

कविता कशावरही सुचू शकते

ठिणगी ही मनात केव्हां पडेल 
कोणाच्या हातात ते कधीच नसते
नसते तिला विषयांचे बंधन
अनायास ती कधीही स्फूरते
कविता कशावरही सुचू शकते

झाडांवर, फुलांवर, उमलत्या कळ्यांवर
पानांवर, रानांवर, शेतांवर, मळ्यांवर
चंद्रावर, सूर्यावर, पृथ्वीवर, देशांवर
देशात आढळणाऱ्या भिन्न भिन्न वेशांवर
कविता कशावरही सुचू शकते

रडण्यावर, हसण्यावर, कुंथण्यावर, कण्हण्यावर
कोणाच्या मौनावर, तर कोणाच्या म्हणण्यावर
दुःखावर, रागावर, प्रेमावर, रोषावर
निरागस बाळाच्या गोड गोड हशावर
कविता कशावरही सुचू शकते

जन्मावर, मरणावर, जीवनावर, जगण्यावर
मुलांवर, मोठ्यांवर, वृद्धांवर, तरुणांवर
तरुणांच्या रक्तात सळसळत्या जोशावर
विजयी चौकारानंतरच्या स्फूर्त जल्लोषावर
कविता कशावरही सुचू शकते

पक्ष्यांवर, प्राण्यांवर, किड्यांच्या गाण्यावर
पक्ष्यांच्या दाण्यांवर, चोचभर पाण्यावर
रानात बागडणाऱ्या पांढऱ्या सशावर
पाण्यात पोहणाऱ्या चपळ माशावर
कविता कशावरही सुचू शकते

मित्रांवर, नात्यांवर, सृष्टांवर, दुष्टांवर
जगतांना भोवणाऱ्या अगणित कष्टांवर
आपल्यात गुंतवून टाकणाऱ्या कोषांवर
कोषातील बंधनकारक अगणित पाशांवर
कविता कशावरही सुचू शकते

चेहऱ्यावर, डोळ्यांवर, गालांवर, ओठांवर
सडपातळ बांध्यांवर, सुटलेल्या पोटांवर
हवेत उडत्या शामल केशपाषांवर
सुरकुतलेल्या चेहऱ्याच्या एकेक रेशांवर
कविता कशावरही सुचू शकते

दारावर, पारावार, अंगणावर, मोरीवर
कपडे वाळत घातलेल्या दोरीवर
चुलीत धुमसणाऱ्या ओल्या कोळशांवर
धुरात जळणाऱ्या डोळ्यांच्या रेशांवर
कविता कशावरही सुचू शकते

-विवेक भावसार

Tuesday, January 7, 2020

ळ ची पळापळ



आता हे अक्षरच घ्या....
ळ हे मिळमिळीत अक्षर आहे हे ढळढळीत खोटे आहे. पीळदार शरीराचा ळ असा गुळमुळीत कसा असू शकतो ? आता पळापळीतलाच ळ पहा कसा दोन चाकं लाऊन घरंगळत गेल्यासारखा वाटतो. तसेच पळीतला ळ तेलाला सांडू न देण्यासाठी जणु चंबू करून बसला आहे. आणि गोळीतला ळ म्हणजे चिटकुन ठेवलेल्या दोन गोळ्याच.
पोळी पण गोल आणि भोपळा देखील वाटोळा नाही का ?... आणि हा ळ सुद्धा दोन गोल मिळूनच ना. आणि या दोघांबरोबर गोलाच्या रांगेत सामिल व्हायला ओळीने उभे आहेत गोळी, नारळ, फळ, शहाळं, घंगाळं, घड्याळ.
पण सगळेच ळ काही गोलाशी मैत्री करत नसतात, काही रूळासारखे सरळही असतात तर काही वारुळासारखे वाकडेतिरपेही असतात, फळयासारखे चौकोनी असतात, घुमावदार सुंदर रांगोळीत असतात.
नुसत्या आकारातच नाही तर रंगांमधेही या ळ ने मुसण्डी मारून त्यांना घुसळून ठेवले आहे, काळा, निळा, जाम्भळा, सावळा, ढवळा, पिवळा, गव्हाळ इत्यादि.
दिसतो तितका भोळा नाही हा. उन्हाळा, पावसाळा, हिवाळा... प्रत्येक ऋतुत शिरून बसलेला आहे.
भांड्यांच्या राज्यात पळी-घंगाळीशिवाय याला कुठेच स्थान नाही, इथेच त्याचे पितळ उघडे पडते. तसेच जनावरांच्या राज्यात शेळी आणि आळीपर्यंतच याची मजल. पक्षी म्हटला कि वटवाघूळ, कोकिळा आणि कावळा. झाडांमध्ये केळ, बाभूळ, पिंपळ. फुलांच्या तर पाकळ्या पाकळ्यात हा वसलेला आहे. भाज्यांमध्ये भोपळ्याबरोबर 'घोळ' घालणारा हाच. पण या भाज्यांचे विळी बरोबर सख्य नाही बरं कां !
सर्वात आधी शाळेत अक्षर ओळख होते या ळ ची बाराखडी शिकतांना. याला बोलताना जीभ वळवळत ठेवावी लागत असल्याने मोजक्याच भाषांमधे ळ ला जागा मिळाली आहे, राष्ट्रभाषेत याला मुळीच स्थान नाही. पण मराठीतून हा वेगळा करता येण्यासारखा नाही, याला वेगळा करताच मराठी लुळीच होऊन पडेल, हे काही न कळण्यासारखे नाही.
किती किती घोळ करून ठेवलेला आहे या ळ ने, कुठे कुठे तर गावांच्या नावातही शिरलेला आहे. बेळगांवमधे, जळगांव, पारोळा, तळोदा, तळेगांव यांच्यातही. अजूनही काही नावं असतील. आठवलीत तर 'कळवा'.
मेळा-जत्रा भरल्यावर तिथे ही हा सापडतो भेळेमधे, वेगवेगळ्या जादुच्या खेळांमधे, बर्फाच्या गोळ्यामधे, विजेच्या पाळण्यामधे, गुळशेवमधे...
माळी, गवळी, लुळी-पांगळी, डोळस, आंधळी.... मेळ्यात अश्या कितीतरी लोकांचा समेळ घडवून आणतो. स्वतः आंधळा नसून हा तुमच्याकड़े बुबुळांना रोखून डोळे वटारून बघत असला तरी तुम्हाला याचा गळा धरता येणार नाही.
खरंतर आकाराच्या मानाने याला द्राक्षासारख्या फळाच्या नावात असायला पाहिजे, तर हा कुठे घुसुन बसला त्या लांबोळक्या केळयात.
घुसुन बसण्याच्या बाबतीत याने कोणालाही सोडलेले नाही, आळीत आहे, बोळीत आहे, नळीत आहे, घळीत आहे, खेळात आहे, लाकडाच्या मोळीत आहे, जळाला नियंत्रित करणाऱ्या नळात आहे तर सरणातल्या पेटत्या जाळातही आहे. बाकी हा सगळ्यात मिळून मिसळून राहणारा आहे यात काही वाद नाही. शब्दांच्या मधे असो, शेवटी असो पण हा कधीही शब्दाच्या पुढे राहिला नाही.
पाहिले ... किती धूळदांड उडवून ठेवलेली आहे या ळ ने, जळी-पाताळी-आभाळी सगळीकडे ... मुळीच ताळतंत्र ठेवलेला नाही. सगळीकडे नुसता धुरळा धुरळा करून ठेवला आहे. असा हा मराठीत सगळीकडे धुमाकुळ घालणारा ळ, विरळा शब्दाएवढा विरळा नाही.
रस्त्याला वाकडा करून वळण लावणारा ळ.
कोळी-मासळी यांच्या संगतीत राहणार ळ.
लाकुड़तोड्याच्या मोळीत बांधलेला ळ.
आळश्यासारखा लोळागोळा होऊन पडलेला ळ.
पोरांना गोळा करून खेळ खेळणारा ळ.
बाळापासून बोळक्या तोंडांच्या आजी-आजोबांना खळखळून हसवणारा ळ.
किती किती रूपं आहेत या ळ ची. सर्व काही सुरळीत ठेवूनही सकाळ संध्याकाळ तुम्हाला सळो कि पळो करून ठेवणारा हा ळ....
वेळी अवेळी पळे पळे मोजीत नेहमी तुमच्या संगे असते ही ळ ची नाळ.... बाळाच्या पाळण्यापासून चितेच्या जाळापर्यंत!
अश्या या ळ चे महत्व तुम्हाला कळालेच असेल असे माझे प्रांजळ मत आहे, तरी वेळात वेळ काढून ही ळ ची आगळी वेगळी गम्मत, सगळीच तुम्ही अनुभवली असेल.
आता पूरे झाले ळ चे आळोखेपिळोखे.. तुम्हालाही कंटाळा आला असेल, म्हणून आता करू या एकदा टाळी वाजवून आळीमिळी गुपचिळी.
- लळानंद !
(विवेक भावसार)