Tuesday, October 15, 2019

चाल









चाल व चलना !
  चलना क्या है? बताने की आवश्यकता नहीं... हर कोई जानता है कि पैरों को एक के बाद एक कदम जमाकर बढ़ाया जाता है उसे चलना कहते हैं। इसी चलने से चाल बनती है।
   पशुओं में एक जाति के पशु आमतौर पर अपने तरह के अन्य पशुओं की तरह ही चला करते हैं, उनकी चाल में कोई विशेष विविधता नहीं होती... जैसे सभी भैंसे अपनी सुस्त और बेफिक्र चाल से चला करती हैं, हिरण कुलांचे भरते हुए दौड़ते हैं, गिलहरी या चूहे अपनी तेज चाल के सहारे छोटी सी भी दूरी पार करते हैं, गधे भी भैंसों की तरह सुस्त चाल से चला करते हैं। भेड़-बकरियां बेतरतीब चला करती हैं. कहने का अर्थ यह कि प्राणी अपने- अपने जाति वर्ग में लगभग अपने अन्य जाती बंधुओं की तरह ही चला करते हैं।
   लेकिन मानव ही एक ऐसा प्राणी है जो कितने अलग-अलग प्रकारों से चलता है। बच्चा लगभग साल भर का होते ही चलने की कोशिश करने लगता है। उसके पहले कदम पर उसके माँ पिता कितने खुश होते हैं। बच्चे को एक चाल मिल जाती है। लेकिन मनुष्यों में यह चाल सभी की एक तरह की नहीं होती।
   किसी की चाल इतनी तेज होती है कि जैसे गर्म तवे पर कदम रख चल रहा हो (मुंबई जैसे महानगर के लोग अक्सर किसी लोकल ट्रेन को पकड़ने के लिए ऐसी ही चाल से चलते हैं)... तो कोई इतना धीमे-घिसटते हुए चलता है जैसे पैरों में वजन बांध रखे हों।
   कोई इस तरह उछलते हुए चलता है मानो राह में काँटे- कंकड़ बिछे हों ...तो कोई ऐसे चलता है मानो इनके पैर दलदल में फँसे हो ।
   कोई चलता है सधे हुए, नपे-तुले कदमों से ... तो किसी नशे में धुत्त शराबी का अगला कदम कहाँ गिरेगा, नहीं बताया जा सकता।
   किसी की चाल राजसी होती है, शानदार .... तो कोई इतना बेहूदा तरीके से चलता है कि देखकर हँसी आ जाती है। 
   अलग-अलग व्यक्तियों की यह विभिन्न चाल उनकी उम्र, शारीरिक अवस्था, बीमारी आदि की वजह से भिन्न-भिन्न हो सकती है।
   मनुष्यों की विशेष कर महिलाओं के चाल की तुलना कुछ पशु पक्षियों के चाल से की जाती रही है जैसे मोरनी की चाल, हंस की चाल, गजगामिनी, हिरनी की चाल, नागिन सी लहराती चाल आदि। भेड़चाल का भी उल्लेख कभी-कभी होता है लेकिन वह समूह को लेकर होता है। आत्मविश्वास से भरे दमदार कदमों को शेर सी चाल की उपमा दी जाती है। इससे पता चलता है कि मनुष्यों की चाल में कितनी विविधता पाई जाती है। कुछ पशु-पक्षियों की चाल का हमारे शास्त्रीय नृत्यों में बहुत सुंदर उपयोग किया गया है।
   व्यवसाय या अपने काम की वजह से भी किसी को एक विशिष्ट चाल अपनानी पड़ती है। इसका प्रमुख उदाहरण है, रैंप पर चलने वाली मॉडल्स। इनकी अजीब चाल देखो तो लगता है इनके पैर गलत जगह फिट करवा दिए गए हों। मानो बाएं पैर की जगह दायाँ और दाएं के स्थान पर बायाँ पैर लगाकर इन्हें चलाया जा रहा हो। अपनी चाल में विशिष्ट अदा-लचक लाने के लिए ऊंची एड़ी की जूतियाँ पहनने का चलन इन्हें अपनाना पड़ता है
   सैनिकों को भी परेड के समय एक विशेष चाल से कदम मिलाते हुए चलना होता है। किसी टुकड़ी के सैनिक अपने पैर कमर तक ऊँचे उठाते हुए कदम बढ़ाते हैं तो कहीं इससे कुछ अलग तरीके से चलते हैं, लेकिन एक ताल पर एक समान उठते कदम देखने में कितने अच्छे लगते हैं।
   समूह नृत्यों जैसे गरबा, बीहू, झूमर आदि में भी गोल घुमते हुए एक लयबद्ध चाल सभी नर्तक चलते हैं, जो देखने में सुन्दर लगती है. इसमें से किसी एक की भी बिगड़ी हुई चाल अन्य नर्तकों की चाल पर असर डाल सकती है. 
   चाल को फिल्मी गीतकारों को भी मोहित करने से नहीं छोड़ा है। चाल को लेकर गीतकारों ने कई गीत बना डाले हैं, तौबा ये मतवाली चाल... मारा ठुमका बदल गई चाल मितवा... चढ़ती जवानी मेरी चाल मस्तानी.... कान में झुमका चाल में ठुमका... जैसे गीत भी चाल में मतवाली, मस्तानी, ठुमकेवाली आदि चालों की विविधता की पुष्टि करते हैं।
   रिश्ता करने के पहले लड़के लड़की का चाल-चलन जान लेने का भी चलन है। लेकिन इस चाल-चलन में 'अच्छा' और 'बुरा' यही दो प्रकार हैं।
   एक चाल होती है जो दुश्मन को परास्त करने के लिए चली जाती है। यह चाल शतरंज के खेल से आई है और बहुतायत में राजनीति और सास बहू वाले tv सीरियलों में पाई जाती है। वैसे शतरंज की गोटियों के चालों की विविधता भी प्रसिद्ध है...आड़ा, तिरछा, सीधा, ढाई घर आदि चालें चलने वाली गोटें अपनी चालें मनुष्य को भी सीखा गई हैं।
   उधर कौए को हंस की चाल चलने पर उसका मजाक उड़ाया जाता है। कौओं की अपनी चाल कैसी भी हो लेकिन प्रश्न यह है कि यदि सारे कौवे हंस की देखादेखी उसकी चाल चलने लगे तो क्या ये भेड़चाल होगी या हंस की चाल?

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(मराठी मित्रांसाठी आठवले ... पु. ल. देशपांडे यांनी 'चाल' या विषयावर लिहिलेले -
"पूर्वीच्या काळी राजदरबारात कवींना एक चरण देऊन समस्यापूर्ती करायला लावत. मला कवितेतली ओळम्हणण्यापेक्षा कवितेतले चरण म्हटलेलं, एवढंच नव्हे तर गीताला पद म्हटलेलं अधिक आवडतं. चरण, पद, ह्या शब्दांतून चालणंसुचवलं जातं. म्हणूनच पदाला चालयेते. पहिली ओळ दुसऱ्या ओळीच्या शोधात चालायला लागते. टागोर म्हणतात त्याप्रमाणं यमकातून जुळणाऱ्या दुसऱ्या ओळीशी मीलन झाल्याशिवाय पहिलीच्या अस्तित्वालाही पूर्णता येत नाही. तसे आपण सारेच आपल्याशी जुळणाऱ्यांच्याच यमकांच्या शोधात असतो. वयाच्या निरनिराळ्या अवस्थेत जीवनाला परिपूर्णता देणारे अनुभव शोधत असतो. माणसं शोधत असतो. यमक, प्रास जुळणा-या ओळींसारखेच एकत्र येत असतो." )
-पदन्यासानंद !
(विवेक भावसार)

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