Tuesday, May 21, 2019

पूँछ

पूँछ

डार्विन महाशय के मानव उत्क्रांति के सिद्धांत अनुसार मानव के पूर्वज बंदर थे, अर्थात आदमी पहले बंदर था, फिर उसका विकास होते-होते वह मनुष्य रूप में आया । तब सवाल यह उठता है कि फिर बाकी के बंदर... बंदर ही क्यों रह गये ? वे क्यों नहीं मनुष्य बनें, उन्हें किस डार्विन ने रोक रखा था ?

लेकिन यह अच्छा हुआ कि विकास के इस दौर में मनुष्य पुच्छविहिन हो गया। सोचिये अगर अभी भी बन्दर की तरह इन्सान को पूँछ चिपकी हुई होती तो उससे क्या-क्या परेशानियाँ या फायदे होते ।

फायदों की बात करें तो--
दोनों हाथ व्यस्त होते हुए भी मनुष्य अपनी पूँछ की सहायता से मक्खी, मच्छर उड़ा सकता।
पूँछ समय-समय पर चेहरे पर हवा करने के काम आती।
 हाथ की पहुँच से दूर रखी वस्तु पूँछ से पकड़ कर लाई जा सकती।
 विवाद के दौरान दूसरे को झापड़ मारने के लिये पूँछ उपयोगी होती।
 जमीन पर बैठने के लिये पूँछ की कुंडली बनाकर गद्देदार आसन बनाया जा सकता।
 मास्टरजी हाथ या कान की जगह पूँछ मरोड़ कर छात्रों को दंड देते।
 पति-पत्नी भीड़ में बिछड़ने से बचने हेतु हाथ के बजाय एक दूजे की पूँछ से पूँछ पकड़े रहते
◆ बंदर की तरह पूँछ के बल लटकने के खेल खेले जा सकते।
 ट्रेन, बस या थियेटर में सीट रोकने के लिए पड़ोस की सीटों पर पूँछ फैलाकर बैठा जा सकता।
 मनुष्य की सुंदरता में पूँछ का भी महत्व होता, जैसे लंबी या नाटी पूँछ, मोटी या पतली पूँछ, पूँछ का लचीलापन, पूँछ के बालों की लंबाई, घना पन, रंग आदि सुंदरता के पैमाने होते।
 पूँछ से संबंधित व्यवसाय फलते फूलते। पूँछ सज्जा के लिये सलून, ब्यूटीपार्लर होते। पूँछ के बाल रंगने के रंगों का, झड़ने से रोकने के लिये तैलों, दवाओं का व्यवसाय जोरों पर होता।
 पूँछ सजाने की एसेसरीज का व्यवसाय चल पड़ता।
 पूँछ स्पेशलिस्ट चिकित्सकों की भी एक शाखा होती।
 शायर / कवि प्रेमियों की पूँछ की तारीफ में गीत लिखते।
.....आदि आदि!
परेशानियाँ --
 उठते-बैठते समय पूँछ संभालने में सावधानी रखनी पड़ती।
 परिधानों के डिजाइन बदलने होते, पूँछ के अनुसार ड्रेस में प्रावधान बनाने पड़ते।
 कुर्सियों-सोफों के डिजाइन पूँछ रखने की जगह बनाते हुए तैयार करने पड़ते।
 चलते हुए किसी की पूँछ पर पैर न पड़े पस बात का विशेष ध्यान रखना पड़ता।
 बाईक पर पीछे बैठने वाले को पूँछ पहिये में न आये इसका ख्याल रखना पड़ता, या लटकती पूंछ को देखकर लोग टोक देते जैसे आजकल साड़ी के लटकते पल्लू या ओढ़नी के लिए टोकते हैं।
.....आदि आदि!
अच्छा है, आदमी के सींग भी नहीं है, उनके होने में परेशानियाँ ही ज्यादा होती बजाय फायदों के।
कल्पनाएं हैं, कल्पनाओं का अंत नहीं। कुछ फायदे या परेशानियों की कल्पनाएं शायद आप भी कर सकें।
- पुच्छचिंतनानन्द !
(विवेक भावसार)

2 comments:

Unknown said...

हा हा, वैसे इसीलिए आज भी इंसानों को पूछ की जरूरत रहती है, यहां मेरी पूछ क्यों नही है 😖

वैसे आपने मजाक मजाक में एक बड़ा वाजिब सवाल उठाया है कि बाकी के बंदर, बंदर ही क्यों रह गए
ये सवाल कभी मेरे भी मन मे आया था, पर अनुत्तरित ही रह गया, चलो कोशिश करेंगे इनका जवाब खोजने की
अपडेटानंद

Vivek Bhavsar said...

जवाब मिले तो हमें भी अवगत कराइयेगा। शुक्रिया !